Book Title: Anusandhan 2007 07 SrNo 40
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 83
________________ ७६ अनुसन्धान- ४० वनस्पति का अन्य जीवों द्वारा किया जानेवाला आहार इस विषय से सम्बन्धित चर्चा विस्तार से पायी जाती है । ३६ प्रस्तुत शोधनिबन्ध की मर्यादा ध्यान में रखते हुये वनस्पति के एकेन्द्रियत्व से जितनी चर्चा सम्बद्ध है उतनी ही यहाँ की है । वनस्पतिजीव एकेन्द्रिय हैं । फिर भी शरीरपोषण के लिए सभी शरीरधारी जीवों को वनस्पति का आहार करना आवश्यक है । इस आवश्यकता की पूर्ति के लिए भी मर्यादा के बाहर वनस्पति का उपयोग जैन दर्शन को मंजूर नहीं है । वनस्पति 'जीव' होते हुये भी उनका आहार में प्रयोग करने का कारण सूत्रकृतांग में बताया है कि एकेन्द्रिय जीव केवल रस धातु की निष्पत्ति होती है । उसमें रक्त नहीं होता । रक्तधातु के बिना मांसधातु निष्पन्न नहीं होती । इसलिए मांस और अन्न की तुलना संगत नहीं है । ३७ सैद्धान्तिक दृष्टि से जैन शास्त्रों में कन्दमूलों को साधारण वनस्पति का दर्जा दिया है और उसका प्रत्येक जैन व्यक्ति के खानपान में निषेध भी किया है । इतना ही नहीं, दिन में जिन-जिन वनस्पतियों का प्रयोग अपने खानपान में किया है, उनकी आलोचना करने का विधान साधुसाध्वी और श्रावक-श्राविका के नित्य आवश्यककृत्य में बताया है । ३८ जैनियों की वनस्पति के प्रति विशेष संवेदनशीलता ही इससे प्रतीत होती है । शाकाहार-मांसाहार दोनों के गुणधर्मों का विश्लेषण विज्ञान में करना है । वैज्ञानिक ग्रन्थ बोध या उपदेश देनेवाले न होने के कारण विज्ञान में किसी की सिफारिश नहीं की जाती । अलग-अलग गुणधर्म पहचान के कौनसा आहार त्याज्य है और कौनसा आहार ग्राह्य है यह सर्वथा व्यक्ति पर निर्भर है । वैज्ञानिक दृष्टि के कन्दमूल, हरी सब्जी तथा अंकुरित धान्य खाने का निषेध तो है ही नहीं बल्कि उनमें प्रोटीन्स और विटामिन्स बहुत ज्यादा मात्रा में होने का निर्देश है। जैन शास्त्रों में जिन जिन चीजों का आहार में निषेध किया है, वह वैज्ञानिक दृष्टि से निषिद्ध होने की सम्भावना नहीं है । वैदिक ग्रन्थों में देखा जाय तो महाभारत के शान्तिपर्व में कहा है १८०७, १३; भगवती ३६. सूत्रकृतांग, आहारपरिज्ञा अध्ययन; प्रज्ञापना २८.१; ७.३.१-२ ३७. सूत्रकृतांग २.६.३५ का टिप्पण ३८. आवश्यकसूत्र ४.२५ (१) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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