Book Title: Anusandhan 2007 07 SrNo 40
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 80
________________ जुलाई-२००७ ७३ मनुष्य शरीर से, मनुष्य की शारीरिक अवस्था से और मनुष्य की मानसिक संवेदनासे विस्तारपूर्वक की है ।३१ दोनों ग्रन्थों में की हुई इस तुलना से यह प्रतीत होता है कि वनस्पति में पाँचों इन्द्रियाँ होने का अनुभव उन्होंने इसमें ग्रथित किया है। पंचेन्द्रिय की तरह वनस्पति में सिर्फ 'रस' धातु के सिवाय रक्त, मांस आदि छह धातु न होने से उसकी गणना ‘एकेन्द्रिय' में की है।३२ वैदिक साहित्य में वनस्पति की इन्द्रियों की चर्चा विस्तृत रूप से सिर्फ महाभारत के शान्तिपर्व में दिखाई देती है । महाभारत के शान्तिपर्व में भृगु मुनि तथा भारद्वाज के संवाद से वृक्षों के पाँचभौतिक तथा इन्द्रियसहित न होने की और होने की चर्चा विस्तार से पाई जाती है । भारद्वाज मुनि के कथन का सारांश यह है कि वृक्ष में द्रव, अग्नि, भूमि का अंश, वायु का अस्तित्व तथा आकाश नहीं है। इसलिए वे पाँचभौतिक नहीं है। भृगुमुनि को यह दृष्टिकोण बिलकुल मान्य नहीं है। उन्होंने बडे विस्तार से वृक्षसम्बन्धी बातें कहीं हैं । 'वक्ष घनस्वरूप है यह सच है लेकिन उसमें आकाश का अस्तित्व होता भी है । उसके पुष्प और फल कमकमसे दिखाई देते हैं इसलिए वे 'चेतन' भी हैं और 'पाँचभौतिक' भी हैं । उष्णता से वृक्ष का वर्ण म्लान होता है । छाल सूख जाती है । फल और फूल पक्व और जीर्ण होकर गिरते हैं इसलिए उन्हें 'स्पर्शसंवेदना' है । जोर की हवा की ध्वनि, से वडवाग्नि तथा वज्रपात की ध्वनि से, वृक्षों के फल और फूल गिर जाते हैं । ध्वनिसंवेदना तो श्रोत्रेन्द्रिय को होती है। इसलिए वृक्षों को 'श्रवणेन्द्रिय' है । लता वृक्ष को वेष्टित करती है, वृक्ष पर फैल जाती है । आदमी को भी अगर दृष्टि नहीं होती तो वह उचित मार्ग से जा नहीं सकता था, इसलिए वृक्ष 'देख' भी सकता है। सुगन्ध वा दुर्गन्ध से तथा धूप आदि से वृक्ष रोगरहित होते हैं और उनमें फूलफलों की बहार आ जाती है । इसलिए उन्हें 'घ्राणेन्द्रिय' भी है । वृक्ष अपने मूलों के द्वारा जल का शोषण करते है। वे रोगग्रस्त भी होता हैं । इतना ही नहीं, उनमें रोग के प्रतिकार का सामर्थ्य भी हैं । इसलिए वृक्ष को 'रसनेन्द्रिय' है । ३१. आचारांग १.१.१०४; सूत्रकृतांग २.७.८; सूत्रकृतांग टीका पृ. १५७ बी. १० ३२. सूत्रकृतांग २.६.३५ का टिप्पण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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