Book Title: Anusandhan 2007 07 SrNo 40
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
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४६
अनुसन्धान-४०
सारद उर गुरु गौतम सुमति प्रकाशनं मंगलकर हो चौ संघहि पाप प्रणासनं ॥१॥ पापहि प्रणासन गुनहि गिरुओ दोष अष्टादश रह्यो धरी ध्यान कर्म विनाशि केवलग्यांन अविचल जिन लह्यौ । प्रभु पंचकल्यानक विराजत सकल सुरनर ध्याबहिं त्रैलोक्यनाथ सुदेव जिनवर जगत मंगल गावहिं ॥२॥ जाके गरभकल्यानक धनपति आईओ अवधिन्यान परवानसुं इंद्र पठाईओ । रचि नव बारह जोजन नयरि सोहावने कनक रयण मणि मंडित मंदिर अति बने ॥३॥ अति बनें पोलिपगार परिखा सुवन उपवन सोहए नरनारि सुंदर चतुर भेखसु देखि जन मन मोहए । तिहां जनकगृहे छम्मास प्रथमहिं रतनधारो बरषीओ फुनि रुचकबासीजननि-सेवा करहिं बहुबिध हरषीओ ॥४॥ सुरकुंजर-सम कुंजर धवल धुरंधरो केसरिकेसर शोभित नख शिख सुंदरो । कमला कलस सोवन दोइ दाम सुहावने रवि शशि मंडल मधुर मीन युग पावने ॥५॥ पावने कनक घट जुगम पूरन कमल ललित सरोवरू कल्लोलमाला-कलित सागर सिंहपीठ मनोहरू । रमनीक अमरविमान फुनि पतिभुवन भुव छबि छाजहिं रुचि रतनराशि दीपंति दह दिस तेज पुंज बिराजहिं ॥६॥ हे सखि सोलह सुपने सूती सें नही निरखी माय मनोहर पछि मरें नहीं । ऊठि प्रभात पिउ पूछ्यो अवधि प्रकासीओ त्रिभुवनपति सुत होसी फल तिहां भासीओ ॥७॥
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