Book Title: Anusandhan 2005 09 SrNo 33 Author(s): Shilchandrasuri Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad View full book textPage 4
________________ निवेदन छेल्ला थोडा वखतथी जैन संघमां चालता प्रवाहो परथी एवो अहेसास थाय छे के जैन साधुओमां संशोधनात्मक अध्ययननी रुचि उघडी रही छे. 'अनुसन्धान' जेवां शोध - सामयिको माटेनी जिज्ञासा, हस्तप्रत- भण्डारो जोवानी तथा पोथीओ उकेलवानी उत्कण्ठा, आ बधां चिह्नो धीमे धीमे घणे ठेकाणे जोवा मळी रह्यां छे. जो के, गतानुगतिकपणे पोथीओनी अशुद्ध नकलो लखाववी तथा शुद्धतानी के प्रूफवाचननी लेश पण दरकार न राखवी; बल्के जे लोकोने जैन ग्रन्थो, ग्रन्थकारो, ग्रन्थविषयो साथे कोई ज नातो - रिश्तो न होय तेवा लोको पासे वांचन - शोधन करावीने अशुद्ध वाचनाओने शुद्धतानी महोर मारीने चालवुं, आ बधुं तो खूब जोरशोरमां अने व्यापकपणे अनेक स्थळे चाली रह्युं छे. ओ शोचनीय छे, अयोग्य छे, अने मोटा अनर्थोनुं कारण छे. तेम छतां, केटलेक ठेकाणे साची जिज्ञासा, भूख अने मथामण पण, अप्रत्याशित रूपे, जोवा मळवा मांडी छे, ते आश्वासक घटना जणाय छे. शोधप्रेमीओनो समुदाय वधतो रहे, अने पक्षापक्षीथी पर रहीने शुद्ध शोधकार्यमां ते मच्यो रहे तेवी प्रार्थना. Jain Education International For Private & Personal Use Only - शी. www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 ... 102