Book Title: Anusandhan 1997 00 SrNo 08
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

View full book text
Previous | Next

Page 12
________________ [7] एरिसउ रज्ज-पायव कलिय, वसण-नदी-जलि खलभलिय, नरवाहण-सुअ इम संभलिय, भंति सयल हरिहिं टलिय ।।५७ गाथा पुत्त पहाणो वि सया, जइ एसो महियलम्मि दाण-गुणो । तह वि-हु अत्ता-सत्ती, तत्थ त्तुमं सोहणो नवरं ।।५८ सव्वेसु सुकज्जेसु, वि मज्झत्थ-गुणो सुहावहो [हो]इ । अइकप्पूराहारो, महवइ किं दसण-पडणस्स ॥५९ दूहा अतिहि नमंता जाइँ गुण, थड्डिम नेह न होइ । मज्झिम गुण सेवंतयाँ, कुंभ भरंतउ जोइ ॥६० अइसीइहिँ तरुवर दहइँ, अइ-घण-वुट्ठि दुकाल । अइदानिहिँ अणुचितपणउं, अइ सहु आल-झमाल ॥६१ अतिहि न भल्ला वरसणा, अतिहि न भल्ला धुप्प । अतिहि न भल्ला बुल्लणा, अतिहि न भल्ली चुप्प ॥६२ गाथा इणमेव सुपंडिच्चं जं आयाओ वउ वि विसेसेण । जह पुत्त पुत्त-पुव्वं, पभणंति विसारया एवं ॥६३ कंडलीउविण-अज्जण जे वय करइँ, विण-सामिय बहु रोस । अतुरपणि अवसर विसरि, जं वियर निय कोस, जं वियरइँ निय कोस सोस बहु करइँ इकल्लउ, ते इत्तर अणुचित्त मूरिख धुरि जाण पहिल्लउ, खज्जंतां खय जंति मेर महियर सम बहु-धण, पइदिणि दंड-समाण जेउ वियरण विण-अज्जण ॥६४ गाथा पिय माय भाय जाया, जायाइँ जणाण ताव सम्मा । जा विप्फुरइ सुवित्तं, विउलं विउलालए नियए ॥६५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 ... 142