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अंगविज्जापइरणयं
पूर्ण घटका चिह्न जो आज विकृत होकर अपनी लिपिका "इठ" सा हो गया है, इत्यादिके आधारपर इस अध्यायके विभागों को व्यवस्थित करनेका यथाशक्य प्रयत्न किया है। इस ग्रंथ में पद्योंके अंक, विभागोंके अंक, द्वारोंके अंक वगैरह मैंने ही व्यवस्थितरूपसे किये हैं । लिखित आदर्शों में कहीं कहीं पुराने जमानेमें ऐसे अंक करनेका प्रयत्न किया गया देखा जाता है, किन्तु कोई भी इसमें सफल नहीं हुआ है । सबके सब अधबिच में ही नहीं किन्तु शुरू से ही पानी में बैठ गये हैं, फिर भी मैंने इस ग्रन्थ में साद्यंत विभागादि करनेका सफल प्रयत्न किया है ।
ग्रंथको भाषा और जैन प्राकृतके विविध प्रयोग
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जैन आगमों की मौलिक भाषा कैसी होगी — यह जाननेका साधन आज हमारे सामने कोई भी नहीं है । इसी प्रकार मथुरा- वल्लभी आदि में आगमोंको पुस्तकारूढ किये तब उसकी भाषाका स्वरूप कैसा रहा होगा इसको जानने का भी कोई साधन आज हमारे सामने नहीं है । इस दशा में सिर्फ आज उन ग्रन्थोंकी जो प्राचीनअर्वाचीन हस्तप्रतियाँ विद्यमान हैं—यह एक ही साधन भाषानिर्णय के लिये बाकी रह जाता है । इतना अनुमान तो सहज ही होता है कि जैन आगमोंकी जो मूल भाषा थी वह पुस्तकारूढ करनेके युगमें न रही होगी, और जो भाषा पुस्तकारूढ करने के जमाने में थी वह आज नहीं रही है-न रह सकती है । प्राचीन अर्वाचीन चूर्णिव्याख्याकारादिने अपने चूर्णि व्याख्याग्रन्थोंमें जो सारे के सारे ग्रन्थकी प्रतीकोंका संग्रह किया है, इससे पता चलता है कि सिर्फ आगमों की मौलिक भाषामें ही नहीं, किन्तु पुस्तकारूढ करनेके युगकी भाषामें भी आज काफी परिवर्तन हो गया है। प्राकृत वृत्तिकार अर्थात् चूर्णिकारोंने अपनी व्याख्याओं में जो आगमग्रन्थों की प्रतीकों का उल्लेख किया है उससे काफी परिवर्तनवाली आगमग्रन्थों की प्रतीकों का निर्देश संस्कृत व्याख्याकारोंने किया है इससे प्रतीत होता है कि आगमग्रन्थों की भाषा में काफी परिवर्तन हो चुका है। ऐसी परिस्थितिमें आगमों की प्राचीन हस्तप्रतियाँ और उनके ऊपरकी प्राकृत व्याख्यारूप चूर्णियाँ भाषानिर्णय के विधानमें मुख्य साधन हो सकती हैं। यद्यपि आज बहुत से जैन आगमों की प्राचीनतम हस्तलिखित प्रतियाँ दुष्प्राप्य हैं तो भी कुछ अंगआगम और सूर्यप्रज्ञप्ति आदि उपांग वगैरह आगम ऐसे हैं जिनकी बारहवीं तेरहवीं शताब्दी में लिखित प्राचीन हस्तप्रतियाँ प्राप्य हैं । कितनेक आगम ऐसे भी हैं जिनकी चौदहवीं और पन्दरहवीं शताब्दी में लिखित प्रतियाँ हो प्राप्त हैं । इन प्रतियोंके अतिरिक्त आगमग्रन्थोंके ऊपर की प्राकृत व्याख्यारूप चूर्णियाँ आगमोंकी भाषाका कुछ विश्वसनीय स्वरूप निश्चित करनेमें महत्त्वका साधन बन सकती हैं, जिन चूर्णियों में चूर्णिकारोंने जैसा ऊपर मैं कह आया हूं वैसे प्रायः समग्र ग्रन्थकी प्रतीकोंका संग्रह किया है । यह साधन अति महत्त्वका एवं अतिविश्वसनीय है । यद्यपि चूर्णिग्रन्थों की अति प्राचीन प्रतियाँ लभ्य नहीं हैं तथापि बारहवीं तेरहवीं चौदहवीं शताब्दी में लिखित प्रतियाँ काफी प्रमाणमें प्राप्य हैं । यहाँ एक बात ध्यान में रखने की है कि भलेही चूर्णिग्रन्थोंकी अति प्राचीन प्रतियाँ प्राप्य न भी होती हों, तो भी इन चूर्णिप्रन्थों का अध्ययन - वाचन बहुत कम होनेसे इसमें परिवर्तन विकृति आदि होने का संभव अति अल्प रहा है । आगमोंकी भाषा का निर्णय करनेमें प्रामाणिक साहाय्य मिल सकता है । यह बात तो जिन आगमोंके ऊपर चूर्णि व्याख्यायें पाई जाती हैं उनकी हुई । जिनके ऊपर ऐसे व्याख्याग्रन्थ नहीं हैं ऐसे आगमों के लिये तो उनके प्राचीन अर्वाचीन हस्तलिखित प्रत्यन्तर और उनमें पाये जानेवाले पाठभेदों का वाचनान्तरोंका अति विवेक पुरःसर पृथक्करण करना यह ही एक साधन है । ऐसे प्रत्यन्तरों में मिलनेवाले विविध वाचनान्तरों को पृथक्करण करनेका कार्य बड़ा मुश्किल एवं कष्टजनक है, और उनमेंसे भी किसको मौलिक स्थान देना यह काम तो अतिसूक्ष्मबुद्धिगम्य और साध्य है । भगवती सूत्रकी विक्रम संवत् १११० की लिखी हुई प्राचीनतम ताडपत्रीय प्रति आचार्य श्री
अतः ऐसे चूर्णिग्रन्थों को सामने रखने से
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