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प्रस्तावना
इस ग्रन्थमें सिद्ध संस्कृतसे प्राकृत बने हुए प्रयोग कई मिलते हैं-अब्भुत्तिट्ठति सं. अभ्युत्तिष्ठति, स्सा और सा सै. स्यात् , केयिच्च केचिच्च, कचि क्वचित् , अधीयता, अतप्परं सं. अत: परम् , अस सं. अस्य, याव सं. यावत् , वियाणीया सं. विजानीयात्, पस्से सं. पश्येत् , पते और पदे सं. पतेत् , पणिवते सं. प्रणिपतति, थिया सं. स्त्रियाः, पंथा, पेच्छते सं. प्रेक्षते, णिचसो, इस्सज्ज सं. ऐश्वर्य, हाउ सं. स्नायु आदि ।
इस ग्रन्थमें नाम और आख्यातके कितनेक ऐसे रूप-प्रयोग मिलते हैं जो सामान्यतया व्याकरणसे सिद्ध नहीं होते, फिर भी ऐसे प्रयोग जैन आगमग्रन्थों में एवं भाष्य-चूर्णि आदि प्राकृत व्याख्याओंमें नजर आते हैं ।
अत्थाय चतुर्थी एकवचन, अचलाय थीय एनाय ण्हुसाय उदुणीय स्त्रीलिङ्ग तृतीया एकवचन, जारीय चुडिलीय णारीय णरिए णासाय फल कीय स्त्रीलिङ्ग षष्ठी एकवचन, अचलाय गयसालाय दरकडाय पमदाय विमुक्काय दिसांज स्त्रीलिङ्ग सप्तमी एकवचन, अप्पणिं अप्पणी लोकम्हि युत्तग्घम्हि कम्हियि सप्तमी एकवचन, सकाणि इमाणि अभंतराणिं प्रथमा बहुवचन । पवेक्खयि सं. प्रवीक्षते, गच्छाहिं सं. गच्छ, जाणेजो सं. जानीयात्, वाइजो वाएज्जो सं. वाचयेत् वादयेत्, विभाएजो सं. विभाजयेत् , पवेदज्जो सं. प्रवेदयेत् । ऐसे विभक्तिरूप और धातुरूपोंके प्रयोग इस ग्रन्थमें काफी प्रमाणमें मिलते हैं।
इस ग्रन्थमें-पच्छेलित सं. प्रसेण्टित, पज्जोवत्त सं. पर्यपवर्त्त, पञ्चोदार सं. प्रत्यपद्वार, रसोतीगिह सं. रसवतीगृह, दिहि सं. धृति, तालवेंट तालवोंट सं. तालवृन्त, गिंधि सं. गृद्धि, सस्सयित सं. संशयित, अवरण सं. अपराह, वगैरह प्राकृत प्रयोगों का संग्रह भी खूब है। एकवचन द्विवचन बहुवचनके लिये इस ग्रन्थमें एकभस्स दुभस्स-बिभस्स और बहुभस्स शब्दका उल्लेख मिलता है।
णिक्खुड णिक्कूड णिखुड णिकूड सं. निष्कुट, संली सल्ली सल्लिका सं. क्यालिका, विलया विल का सं. वनिता, सम्मोई सम्मोदी सम्मोयिआ सं. सम्मुद्, वियाणेज्ज-ज्जा-जो वियाणीया-वियाणेय विजाणित्ता सं.
नीयात धीता धीया धोतर धीतरी धीत सं. दहित वगैरह एक ही शब्दके विभिन्न प्रयोग भी काफी हैं। आलिंगनेस्स सं. आलिङ्गेदेतस्य वुत्ताणेकविसति सं. उक्तान्येकविंशतिः जैसे संधिप्रयोग भी हैं। कितनेक ऐसे प्रयोग भी हैं जिनके अर्थकी कल्पना करना भी मुश्किल हो जाय; जैसे कि परिसाहसतो सं. पर्षद्धर्षकः आदि ।
यहाँ विप्रकीर्णरूपसे प्राचीन जैन प्राकृत के प्रयोगोंकी विविधता एवं विषमताके विषयमें जो जो उदाहरण दिये गये हैं उनमेंसे कोई दो-पाँच उदाहरणों को बाद करके बाकीके सभी इस ग्रंथके ही दिये गये हैं जिनके स्थानों का पता ग्रन्थ के अन्तमें छपे हुए कोशको (परिशिष्ट २) देखनेसे लग जायगा ।
अंगविज्जाशास्त्रका अांतर स्वरूप अङ्गविज्जाशास्त्र यह एक फलादेशका महाकाय ग्रन्थ है। यह ग्रन्थ ग्रह-नक्षत्र-तारा आदिके द्वारा या जन्मकुण्डलीके द्वारा फलादेशका निर्देश नहीं करता है किन्तु मनुष्यकी सहज प्रवृत्ति के निरीक्षण द्वारा फलादेशका निरूपण करता है। अतः मनुष्यके हलन-चलन और रहन-सहन आदिके विषयमें विपुल वर्णन इस ग्रन्थमें पाया जाता है।
. यह ग्रन्थ भारतीय वाङ्मयमें अपने प्रकारका एक अपूर्वसा महाकाय ग्रंथ है । जगतभरके वाङ्मयमें इतना विशाल, इतना विशद महाकाय ग्रन्थ दूसरा एक भी अद्यापि पर्यंत विद्वानोंकी नजरमें नहीं आया है।
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