Book Title: Anekant 2015 Book 68 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 6
________________ अनेकान्त 68/1, जनवरी-मार्च, 2015 ___ वीर सेवा मंदिर के आजीवन सदस्यों को एवं कतिपय वरिष्ठ विद्वानों को यह नि:शुल्क भेजी जाती है। परन्तु शोध-पत्रिका को पढ़ने वाले प्रबुद्ध-पाठकों का हमें 'टोटा' दिख रहा है। आज जैन पत्रिकाओं की संख्या में बेहताशा वृद्धि हुई है, लेकिन पढ़ने वालों की रुचि उसी अनुपात में घट रही है। स्वाध्याय के प्रति यह गिरावट क्यों आ रही है- इसकी समीक्षा और इस पर चिन्तन किया जाना चाहिए। वीर सेवा मंदिर में मेरा पदार्पण : ___ लगभग 4 वर्ष हो रहे हैं। दिगम्बर जैन नैतिक शिक्षा समिति दरियागंज के आमंत्रण पर मई 2011 में, वीर सेवा मंदिर तीन दिवस के लिए आया था। उसी समय श्री सुभाष जी (शकुन प्रकाशन), अध्यक्ष वीर सेवा मंदिर ने मुझे सुना और आफिस बुलाकर शोध संस्थान में आने की मेरी मंशा जाननी चाही। कमेटी ने सर्वसम्मति से निदेशक के पद पर मुझे बुलाने की स्वीकृति के पश्चात् जुलाई 2011 से मैंने अपनी सेवायें देना प्रारंभ कर दी। _ 'मंदिर' शब्द ने ही मुझे इस शोध संस्थान के नामकरण पर- पण्डित जुगलकिशोर 'मुख्तार' साहब की अद्भुत सोच और जैनागम के प्रति जीवन के समर्पण का अन्दाज लग गया था। मंदिर की अवधारणा क्या केवल वीतरागी ध्यानस्थ प्रतिमा से जुड़ी है या कोई अन्य प्रयोजनभूत उद्देश्य भी मंदिर संज्ञा को चरितार्थ करता है। निश्चित ही साहित्यानुरागी, शोधार्थ विद्वानों के लिए, ज्ञान-विज्ञान का यह अप्रतिम-केन्द्र, साहित्य-तीर्थ का मंदिर ही है और इसी सोच से मुख्तार साहब ने अपने नगर सरसावा (उ.प्र.) में इसकी स्थापना (1936) करके उसे देश की राजधानी दिल्ली ले आये। ज्ञान की यह गंगा मुख्तार जी के भागीरथी पुरुषार्थ से प्रवहमान होकर दिल्ली आ पहुँची। इस मंदिर का आद्य-संस्थापक पुजारी बना, पाण्डित्य का धनी, जैन पुरातत्त्व और इतिहास का मर्मज्ञ- मनीषी, कालजयी दृष्टि सम्पन्न, आचार्य समन्तभद्र के साहित्य का चितेरा- मुख्तार साहब। जिन्होंने वीर सेवा मंदिर को कर्मभूमि बनाकर ग्रन्थ परीक्षा जैसे शोध पूर्ण ग्रन्थ और आचार्य समन्तभद्र के रत्नकरण्डश्रावकाचार पर भास्वर-भाष्य'समीचीन धर्मशास्त्र' लिखकर- सृजनधर्मिता का अनुपम उदाहरण प्रस्तुत करते हुए जैन साहित्य-जगत में ज्ञान की लक्ष्मण-रेखा खींची। क्या इसकी

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