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अनेकान्त 62/3, जुलाई - सितम्बर 2009
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करता है। यह तभी होता है जब भक्त समर्पण की पराकाष्ठा पर होता है। सर्वार्थ सिद्धि में आचार्य पूज्यपाद ने स्तुति के लक्षण की व्याख्या करते हुए लिखा है- भूता भूदगुणोद्भाववचनं संस्तव: 7 / 23/364
अर्थात्-आराध्य में जो गुण है और जो नहीं भी है इन दोनों का सदभाव बतलाते हुए कथन करना संस्तव है। उपरोक्त कथनों से स्पष्ट है कि मानतुंगाचार्य जी ने भक्तामर स्तोत्र में भगवन् जिनेन्द्र में कर्तृत्व आरोपित नहीं किया है बल्कि वीतरागत्व की उपासना करते हुए सहृदय स्तुति की है।
अन्तरंग एवं बाह्य स्तुति का अद्भुत समन्वय भक्तामर स्तोत्र में आचार्य मानतुंग जी ने ग्यारहवें बारहवें एवं तेरहवें पद्य में जिनेन्द्र भगवान के बाह्य रूप एवं मुद्रा की प्रशंसा करते हुए लिखा है कि हे भगवन्! आपके इस रूप को देखकर यह नेत्र किसी और को नहीं देखना चाहते जिस तरह क्षीर सागर का जल पीने के बाद कोई मनुष्य लवण समुद्र का खारा पानी नहीं पीना चाहता। जिनेन्द्र भगवन् के परमौदारिक तन की सुन्दरता का वर्णन करते हुए लिखा कि जिन शांत परमाणुओं से आपकी रचना हुई है, ऐसा लगता है कि लोक में वे उतने ही परमाणु थे। इसलिए आपके समान सुन्दर अन्य कोई दूसरा रूप नहीं है। अठारहवें पद्य में भगवन् के मुख चन्द्र की शोभा का वर्णन करते हुए लिखा कि आपका मुख कमल अद्भुत चन्द्रमा के समान है जिसके द्वारा मोहरूप अन्धकार का नाश होता है। जिसे न राहु निगल सकता है और न ही मेघों द्वारा आच्छादित किया जा सकता है।
मानतुंगाचार्य ने अरिहंत प्रभु की बाह्य विभूति के रूप में अट्ठाईसवें पद्म से लेकर सैंतीसवें पद्य तक अष्ट प्रतिहार्यों, आकाशगमन, एवं समशरण संपदा आदि का वर्णन भी किया है। लेकिन केवल बाह्य रूप एवं वैभव की आराधना से भगवन् की स्तुति पूर्ण नहीं हो सकती। आचार्य कुंद कुंद जी ने समयसार ग्रंथ में लिखा है कि
णयरम्मि वण्णिदे जह ण वि रण्णो वण्णणा कदा होदि । देहगुणे थुव्वंते ण केवलिगुणा थुदा होंति ॥ 30 ॥
अर्थात-जैसे नगर का वर्णन करने पर राजा का वर्णन नही होता है। इसी प्रकार शरीर के गुण
का स्तवन करने पर केवली के गुणों का स्तवन नहीं होता है। आचार्य समंतभद्र स्वामी ने भी देवागम स्तोत्र में लिखा है कि हे भगवन्! मैं आपको केवल आपकी बाह्य विभूति जैसे देवों का समवशरण में आना, आकाश में बिहार करना छत्र चँवर आदि के कारण नमस्कार नहीं कर रहा हूँ। मैं आपको आपके अन्तरंग गुण वीतरागता एवं सर्वज्ञता आदि गुणों के कारण प्रणाम करता हूँ ।
आचार्य मानतुंग स्वामी ने भी भगवन् जिनेन्द्र के अंतरंग गुणों की स्तुति करते हुए स्तोत्र के चौदहवे एवं पन्द्रहवें पद्य में लिखा है कि हे भगवन्! आपके आश्रयभूत अत्यंत निर्मल गुण तीनों लोकों में फैले हुए हैं। भगवन् की निर्विकल्प दशा का वर्णन करते हुए लिखा कि जैसे प्रलय कालीन प्रचण्ड वायु जो पर्वतों को हिला देती है। वह मेरु पर्वत को कम्पित भी नहीं कर सकते उसी प्रकार मन में विकार पैदा करने वाली देवांगनाओं के हाव भाव भी आपके मन में विकार पैदा नहीं कर सकते। मानतुंगाचार्य जी का यह कथन भगवान जिनेन्द्र की निर्विकारी दशा को स्पष्ट करता है। सोलहवे एवं सत्रहवें पद्य