Book Title: Anekant 2009 Book 62 Ank 03 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 123
________________ अनेकान्त 62/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2009 27 प्रतिपादित सूक्ष्म और गंभीर सिद्धांतों को अपनी सरल भाषा में प्रश्नोत्तर शैली और उदाहरणों के माध्यम से समझाकर जिनवाणी आराधकों का महान् उपकार किया है। समयसार को पूर्वार्द्ध और उत्तरार्द्ध दो भागों में टीका के साथ प्रकाशित कराया गया है। पूर्वार्द्ध में जीवाजीवाधिकार, कतृकर्माधिकार, पुण्य-पापाधिकार, आस्रवाधिकार, संवराधिकार का विवेचन है और उत्तरार्द्ध में निर्जराधिकार, बन्धाधिकार, मोक्षाधिकार, सर्वविशुद्धानाधिकार के बाद स्याद्वादाधिकार का वर्णन है परिशिष्ट में दसों अधिकारों की गाथाओं को प्रस्तुत किया गया है। पूर्वार्द्ध में प्रकाशित अधिकारों का अन्वयार्थ भी उत्तरार्द्ध में प्रकाशित किया गया है जिससे स्वाध्याय करने वाले संपूर्ण ग्रंथ को उत्तरार्द्ध एक भाग द्वारा पढ़ सकते हैं। इस टीका में माता जी की बेजोड़ भाषा शैली उनके अध्ययन, चिंतन एवं साहित्य सृजन भाषानुवाद की विलक्षण प्रतिभा पद पर दृष्टिगत होती है। समयसार "उत्तरार्द्ध" में "पूर्वार्द्ध की तरह ही शैली को अपनाया गया है। निर्जराधिकार में सम्यग्दृष्टि का वर्णन करते हुए निम्न गाथा है एवं सम्मद्दिटी अप्पाणं गुणादि जाणय सहावं। उदयं कम्मविवागं य मु अदि तच्चं वियाणंतो॥ अर्थात् - इस प्रकार सम्यग्दृष्टि आत्मा को ज्ञायक स्वभाव जानता है और वास्तविक तत्त्व को जानते हुए उदय स्वरुप कर्म के फल को छोड़ देता है। __ आचार्य अमृतचन्द्र स्वामी सम्यग्दृष्टि को निज स्वरूप को जानने वाला और कर्मों के उदय के फलस्वरुप से उत्पन्न हुए समस्त परभावों को छोड़ने वाला बताकर उसे ज्ञान वैराग्य संपन्न कहते हैं। कलश के माध्यम कहते हैं कि "मैं सम्यग्दृष्टि हूँ मुझे कभी भी बंध नहीं होता है ऐसा मानकर जिनका मुख गर्व से ऊँचा और पुलकित हो रहा है ऐसे रागी जीव भले ही महाव्रतादि का आचरण करें तथा समितियों का भी उत्कृष्ट रीति से अवलम्बन लेवें तो भी वे अभी भी पापी हैं क्योंकि वे आत्मा और अनात्मा के ज्ञान से रहित होने से सम्यग्दर्शन से ही रिक्त हैं। इस कलश काव्य के आधार पर जो लोग मुनियों को पापी आदि शब्दों का व्यवहार कर देते हैं उन दुष्ट लोगों के लिए टीकाकी ने विशेषार्थ में समझाया है कि यह ग्रंथ महाव्रत-समितियों में तत्पर मुनियों के लिए ही है वे ही सच्चे भेदज्ञानी होकर सम्यग्दृष्टि बनते हैं वे ही वीतरागी होकर कर्मबन्ध से छूट सकते हैं। महाव्रत और समिति आदि चारित्र में तत्पर हैं फिर भी "मैं सम्यग्दृष्टि हूँ, मुझे कदाचित् भी कर्मबन्ध नहीं होता ऐसा अहंकार करके ऊँचा मुख करते हुए अहंकार से चूर हो रहे हैं उनको ही यहाँ पापी कहा है। अर्यिकाश्री ने स्पष्ट किया है कि सरागसंयमी मुनियों के दसवें गुणस्थान तक अपने अपने गुणस्थानों के अनुसार कर्मों का बंध हो रहा है। जानकार अपने को अबन्धक नहीं कहेगा। जो अहंकार कहे कि मेरे कर्मों का बन्ध नहीं हो रहा है, वह अज्ञानी है। अहंकार करने वाले भी मुनि को आचार्य अमृतचन्द्रसूरि जैसे उनके गुरु उन्हें पापी कह सकते हैं

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