Book Title: Anekant 2009 Book 62 Ank 03 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 152
________________ 56 अनेकान्त 62/4, अक्टूबर-दिसम्बर2009 माली की लड़की का एक दृष्टान्त देते हुए कहा है कि एक दिन मछियारे की लड़की अपनी सहेली माली की लड़की के घर मेहमान बन कर आई तो मछियारे की लड़की को उस घर में व्याप्त फूलों की सुगन्ध से रात को नींद नहीं आई। बाद में जब उसने अपनी मछली की टोकरी को सिरहाने में रखा तो उसकी दुर्गन्ध से उसे तुरन्त नींद आ गई। इसी तरह बुरी आदत संसारी जीवों को पड़ी हुई है जिससे आत्मकल्याण की सुगन्ध उन्हें नहीं सुहाती। आचार्य श्री ने 'संघे शक्तिः कलौ युगे' नामक काव्य क्षणिका में सांसारिक भोग विलास में डूबे हुए लोगों की भेड़चाल की मनोवृत्ति का खुलासा किया है जब भौतिकवादी सुखवाद के शोरगुल में आत्मकल्याण और अध्यात्म चेतना के बोल सुनाई नहीं देते और मनुष्य जानता हुआ भी सांसारिक सुखों में ही आत्मकल्याण मानने लगता है। 'संघे शक्तिः कलौ युगे' की भेड़चाल उसे इस पराधीनता की ओर जबरदस्ती धकेल रही है - उधर मेरी साथी भी तो खड़े हैं। पुकार पुकार कर कह रहे हैं। अरे ! परलोक किसने देखा है, विजय का आनन्द किसने लूटा है! ये पौद्गलिक सुख हमें प्रत्यक्ष हैं, ये भोग हमारे निःसर्ग हैं। इन्हें पराजय कौन कहता है ? वर्तमान को छोड़ रहा है। भविष्य के लिए दौड़ रहा है, अरे निपट मूर्ख है ! शब्द-रूप-रस-गन्ध-स्पर्श, सुख-दुःख के हमारे साथी हैं। 22 अपन भी सबके साथ चलेंगे, जो सबके साथ होगा, वही अपन का भी सही। आज भौतिकवादियों और भोगवादियों के संघव्यूह में व्यक्ति स्वातन्त्र्य अथवा आत्म स्वातन्त्र्य, का बोध अभिमन्यु की तरह घिरता जा रहा है। उसके पास शास्त्र, गुरु, धर्म, दर्शन के अस्त्र-शस्त्र तो हैं किन्तु दुर्योधनी षड्यन्त्र से बाहर निकलने का मार्ग उसके पास नहीं। ऐसे संकटकाल की परिस्थितियों में भगवान् महावीर द्वारा बताया गया मानव कल्याण का क्रांतिकारी विचार ही उसकी रक्षा कर सकता है। वह विचार है 'आत्म स्वातन्त्र्य' का विचार। भगवान् महावीर कहते हैं 'पुरिसा तुममेव मित्तम्' अर्थात मनुष्य तू अपना मित्र स्वयं है। मनुष्य अपने ज्ञान, दर्शन और चारित्र द्वारा उच्चतम विकास अर्थात् मुक्ति के सोपान तक पहुंच सकता है। आत्म स्वातन्त्र्य का यही विचार 'व्यक्ति स्वातन्त्र्य' की अवधारणा के नाम से प्रसिद्ध है। महावीर स्वामी की दृष्टि में दूसरे द्वारा अनुभूत सत्य चाहे वह शास्त्रसम्मत ही क्यों न हो उधार लिया हुआ सत्य है। वह अपना सत्य जब तक नहीं बन जाता तब तक आत्म स्वातन्त्र्य और मुक्ति असम्भव है। भगवान् महावीर ने मनुष्य को स्वावलम्बी बनाने के उद्देश्य से कहा है कि व्यक्ति अपनी साधना के बल से इतना ऊँचा उठ सकता है कि देवता भी उसको नमस्कार करते हैं। महावीर का चिन्तन व्यक्ति स्वातन्त्र्य का चिन्तन होने के साथ साथ सर्वोदयी समाज व्यवस्था का भी चिन्तन है। भगवान् महावीर द्वारा उपदिष्ट सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह आदि पंच महाव्रतों के आचरण से व्यक्ति स्वावलम्बी बनता है तथा समाज का चारित्रिक और आध्यात्मिक विकास होता है। भगवान् महावीर ने कहा है कि प्रत्येक प्राणी एक स्वतन्त्र आत्मा है। जीव अकेला

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