Book Title: Anekant 2009 Book 62 Ank 03 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 163
________________ अनेकान्त 62/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2009 67 उत्तर- केवली की दिव्यध्वनि उत्पन्न होते ही अनक्षरात्मक रहती है, इसलिए श्रोताओं ने कर्ण प्रदेश से संबन्ध होने के समय तक अनुभय वचन योग सिद्ध होता है। इसके पश्चात् श्रोताओं के इष्ट अर्थों के विषय में संशय आदि को निराकरण करने से तथा सम्यग्ज्ञान को उत्पन्न होने से सत्य वचन योग का सद्भाव सिद्ध होता है। इस प्रकार केवली में सत्य और अनुभयवचन योग सिद्ध होते हैं। ___ इस कथन से ज्ञात होता है कि श्रोताओं ने समीप पहुँचने के पूर्व वाणी अनक्षरात्मक रहती है, पश्चात् भिन्न-भिन्न श्रोताओं का आश्रय पाकर वह दिव्यध्वनि अक्षररूपता को धारण करती है। स्वामी समन्तभद्र ने जिनेन्द्रदेव की वाणी को सर्वभाषा स्वभाव वाली कहा है यथा तव वागमृतं श्रीमत्सर्वभाषास्वभावकम्। प्रीणयत्यमृतं यद्वत्प्राणिनो व्यापि संसदि॥ स्वयंभूस्तोत्र 97 श्री सहित तथा सर्वभाषा स्वभाव वाली आपकी अमृत वाणी समवशरण में व्याप्त होकर अमृत की तरह प्राणियों को आनन्दित करती है। चौंसठ ऋद्धियों में बीजबुद्धि नाम की ऋद्धि का भी कथन आता है। उसका स्वरूप राजवार्तिक में इस प्रकार कहा है- जैसे हल के द्वारा सम्यक् प्रकार से तैयार की गई उपजाऊ भूमि में योग्यकाल में बोया गया एक भी बीज बहुत बीजों को उत्पन्न करता है, उसी प्रकार नो इन्द्रियावरण श्रुतज्ञानावरण तथा वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम के प्रकर्ष से एक बीज पद के ज्ञान द्वारा अनेक पदार्थों को जानने की बुद्धि को बीजबुद्धि कहते हैं 'सुकृष्टसमुथिते क्षेत्रे सारवति कालादिसहायापेक्षं बीजमेकमुप्तं यथानेकबीजकोटिप्रदं भवति तथा नोइन्द्रियावरण-श्रुतावरण-वीर्यान्तरायक्षयोमशमप्रकर्षे सति एक बीजपद ग्रहणादनेकपदार्थप्रतियत्ति/जबुद्धिः। (राजवार्तिक अध्याय 3 सूत्र 66 पृ.143) इस संबन्ध में यह कहा जाता है कि जिनेन्द्र देव की बीजपदयुक्त वाणी को गणधरदेव बीजबुद्धि ऋद्धिधारी होने से अवधारण करके द्वादशांगरूप रचना करते हैं। इस प्रसंग में यह बात विचार करने योग्य है कि प्रारंभ में भगवान की वाणी को झेलकर गणधरदेव द्वादशांग की रचना करते हैं, अत: उस वाणी में बीजपदों का समावेश आवश्यक है, जिनके आश्रय से चार ज्ञानधारी महर्षि गणधरदेव अंगपूर्वो की रचना करने में समर्थ होते हैं। वीर भगवान् की दिव्यध्वनि को गौतमगणधरदेव सुनकर 'बारहंगाणं चौदस पुव्वाणं च गंथाणमेक्केण चेव मुहुत्तेण कमेणरयणा कदा' (धवल टीका भाग 1पृ.65) द्वादशांग तथा चौदहपूर्व रूप ग्रंथों की एक मुहूर्त में क्रम से रचना की। इसके पश्चात् भी तो भगवान महावीर की दिव्यध्वनि खिरती रही है। श्रोतृमण्डली को गणधरदेव द्वारा दिव्यध्वनि के समय के पश्चात् उपदेश प्राप्त होता है। जब दिव्यध्वनि खिरती है, तब मनुष्यों के सिवाय संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च, देवादि भी अपनी-अपनी भाषाओं में अर्थ को समझते हैं। इससे वीरसेन स्वामी ने इस दिव्य वाणी को 'सव्वभासासरूवा' सर्वभाषा स्वरूपा, भी कहा है। उस दिव्यवाणी की यह अलौकिकता है कि उससे गणधर सदृश महानुभाव ज्ञान के सिन्धु भी अपने लिये अमूल्यज्ञान निधि प्राप्त करते हैं तथा

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