Book Title: Anekant 2009 Book 62 Ank 03 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 175
________________ अनेकान्त 62/4 अक्टूबर-दिसम्बर 2009 जैन दर्शन में काल की अवधारणा 79 - डॉ. सुदर्शन मिश्र " 'काल' शब्द का प्राचीनतम उल्लेख हमें ऋग्वेद में उपलब्ध होता है, जिसका अर्थ वैदिक विद्वान अधमर्षण ने संवत्सर किया है। अथर्ववेद में काल को नित्य पदार्थ स्वीकार किया गया है और उससे प्रत्येक वस्तु की उत्पत्ति मानी गयी है। उपनिषदों में भी 'काल' शब्द विविध अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। महाभारत में 'काल' शब्द को दिष्ट, देव, हठ, भव्य, भवितव्य, विहित मागधेय आदि अनेक अर्थों में प्रयुक्त किया गया है। योग सांख्य आदि दर्शन काल को स्वतंत्र द्रव्य नहीं मानते पातंजल योगसूत्र में भी काल की वास्तविक सत्ता नहीं मानी गई है। काल वस्तुगत सत्य नहीं है। बुद्धिनिर्मित तथा शब्दज्ञानानुपाती है। व्युत्थितदृष्टिवाले व्यक्तियों को वस्तु स्वरूप की तरह अवभासित होता है। शंकर, रामानुज, निम्बार्क, माध्व और बल्लभ संप्रदाय ने भी काल को वास्तविक पदार्थ नहीं माना है। बौद्ध दर्शन के अनुसार 'काल' व्यवहार के लिए कल्पित संज्ञा है । " आधुनिक विज्ञान भी काल को स्वतंत्र द्रव्य नहीं मान रहा है उसके अनुसार काल subjective है Stephen Howking के शब्दों में आधुनिक विज्ञान सम्मत काल की अवधारणा को हम समझ सकते हैं- "Our views of nature of time have changed over the years. Up to the begining of this century people belived in a absolute time. That is each event could he labeled by a number called "time" in a unique way, and all good clocks would agree on the time interval between time events. However, the discovery that the speed of light appeared the same to every observer, no matter how he was moving, led to the theory of relativity- and in that one had to abandon the idea that there was a unique absloute time. Instead, each observer would have his own measure of time as recorded by a clock that he carried. Clocks carried by different observers would ot necessarily agree. Thus time become a more personal concept relative to the oberver who measured it."7 नैयायिक और वैशेषिक काल को सर्वव्यापी स्वतंत्र और अखण्ड द्रव्य मानते हैं। कुछ पाश्चात्य विद्वान भी काल के संबन्ध में दोनों सिद्धांतों को मानते हैं। " जैन परंपरा में काल के संदर्भ में दो अवधारणाएँ प्राप्त हैं- प्रथम अवधारणा के अनुसार काल स्वतंत्र द्रव्य नहीं है, वह जीव और अजीव की पर्याय मात्र है। इस मान्यता के अनुसार जीव एवं अजीव द्रव्य के परिणम को ही उपचार से काल माना जाता है। वस्तुत: जीव और अजीव ही काल द्रव्य हैं। काल की स्वतंत्र सत्ता नहीं है। दूसरी अवधारणा के अनुसार काल स्वतंत्र द्रव्य है। अद्धासमय के रूप में उसका पृथक् उल्लेख है । " यद्यपि

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