Book Title: Anekant 2009 Book 62 Ank 03 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 166
________________ अनेकान्त 62/4, अक्टूबर-दिसम्बर2009 शिवसुखमजरश्रीसंगमं चाभिलष्य, स्वमभिनियमयन्ति क्लेशपाशेन केचित्। वयमिह तु वचस्ते भूपतेभवियन्त स्तदुभयमपि शश्वल्लीलया निर्विशामः॥ जिनचतुर्विशतिका 21 अर्थात् हे प्रभो ! जो मनुष्य आपके सिद्धांतों से परिचित नहीं है वे स्वर्ग और मोक्ष की प्राप्ति के लिए तरह-तरह के नियम करते हैं- कठिन तपस्याओं से क्लेश उठाते हैं, फिर भी उन्हें प्राप्त नहीं कर पाते, पर हम लोग आपके उपदेश का रहस्य समझकर अनायास ही उन दोनों को प्राप्त कर लेते हैं। मुक्ति के दुर्गम मार्ग को वीतराग की वाणी रूपी दीपक की सहायता से पार किया जा सकता है, अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति प्रभु के उपदेश से ही संभव है प्रच्छन्नः खल्वयमघमयैरन्धकारैः समन्तात् पन्था मुक्तेः स्थपुटितपदः क्लेशगतैरगाधैः। तत्कस्तेन व्रजति सुखतो देवे ! तत्त्वावभासा, यद्यग्रेऽग्रे न भवति भवद्भारतीरत्नदीपः॥ एकीभावस्तोत्र-14 अर्थात् निश्चय से यह मुक्ति का मार्ग सब ओर से पाप रूपी अंधकार के द्वारा ढका हुआ और गहरे दु:खरूपी गड्ढों से ऊँचे-नीचे स्थान वाला है। हे देव! जीव, अजीव आदि तत्त्वों को प्रकाशित करने वाली आपकी वाणी रूपी रत्नों का दीपक यदि आगे-आगे नहीं हो तो उस मार्ग से कौन पुरुष सुख से गमन कर सकता है। अर्थात् कोई नहीं। रयणसार में लिखा हैअज्झयणमेव झाणं, पंचेंदिय-णिग्गहं कसायं पि। तत्तो पंचमयाले, पवयणसारब्भसि कुज्जाहो॥१०॥ तीर्थकर महावीर की दिव्यध्वनि से प्रसूत आगम साहित्य का अध्ययन (मनन-चिंतन, स्वाध्याय) ही ध्यान है। उसी से पंचेन्द्रियों का सहज ही निग्रह होता है तथा कषायों का क्षय भी। अतएव (एकादश महाप्रयोजन की सिद्धि के लिए) इस पंचमकाल में प्रवचनसार (जिनवाणी रूपसार-आगम सुभाषित) का अभ्यास करते रहना ही श्रेयस्कर है। - जैन बौद्ध दर्शन विभाग काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी-5

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