Book Title: Anekant 2009 Book 62 Ank 03 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 129
________________ अनेकान्त 62/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2009 33 ही सिद्ध होता है। जैसे मिट्टी के पिण्ड से घड़ा बन जाने पर भी मिट्टीपने का नाश नहीं होता। फिर भी द्रव्य की पर्याय प्रतिक्षण उत्पन्न और नष्ट होती रहती है। अत: वस्तु को द्रव्य रूप से नित्य और पर्याय रूप से अनित्य मानने पर कूटस्थता का प्रसंग नहीं आता और ऐसा होने पर उसमें सर्वथा अर्थक्रिया का भी विरोध नहीं होता जिसमें उसे अवस्तुपना प्राप्त हो। इस तरह द्रव्य का निषेध न करते हुए भी क्षणिक पर्यायों को विषय करने वाला ऋजुसूत्रनय है और सर्वथा निरन्वय क्षणिक पर्यायों को जानने वाला बौद्ध ऋजुसूत्रनयाभासी है। बौद्ध परंपरा के अंतर्गत ही योगाचार की भी एक विशिष्ट दार्शनिक परंपरा है। वह विज्ञानाद्वैतवादी है, बाह्य पदार्थों को नहीं मानता। उसका कहना है कि वास्तविक दृष्टि से विचार करने पर न कोई किसी का कारण है और न कोई किसी का कार्य और कार्य-कारण भाव का अभाव होने से न कोई किसी का ग्राहक है न कोई किसी से ग्राह्य है, न कोई किसी का वाचक है, न कोई किसी का वाच्य है, और जब कार्यकारण भाव की तरह ग्राह्यग्राहकभाव, वाच्य-वाचकभाव भी नहीं है, तो बाह्य पदार्थ कैसे सिद्ध हो सकता है? अतः योगाचार की यह मान्यता भी ऋजुसूत्रनयाभास है। क्योंकि कार्यकारणभाव आदि को वास्तविक माने बिना योगाचार अपने मत का समर्थन और दूसरे के पक्ष का खण्डन कैसे कर सकेगा? अपने पक्ष के समर्थन में वह जो कुछ बोलेगा, वह वाचक कहा जायेगा और उसका जो अभिप्राय होगा वह वाच्य कहा जायेगा, तभी वह स्वपक्ष का समर्थन कर सकता है और ऐसा होने पर वाव्य-वाचक भाव की सिद्ध होती है। इस बात पर योगाचार का कहना है कि वास्तव में वाच्य-वाचक भाव आदि नहीं हैं, किन्तु लोक व्यवहार में उन्हें माना जाता है। अतः कल्पित लोकव्यवहार से हम स्वपक्ष का साधन और विरोधी पक्ष का दूषण करेंगे। ___ इस विषय में जैनदर्शन का यह पक्ष है कि एक लोकव्यवहार सत्य और एक परमार्थ सत्य- ये दो प्रकार के सत्य भी प्रमाण से सिद्ध नहीं होते। तब बुद्ध का उपदेश भी वाच्य-वाचक के अभाव में कैसे बन सकता है? धर्म का उपेदश तभी सिद्ध हो सकता है, जब अधर्म के उपदेश में दूषण उठाये जा सकें। ये सब वाच्य-वाचक भाव मानने पर और लोक व्यवहार को सत्य मानने पर ही सध सकता है अन्यथा नहीं और ऐसा मानने पर योगाचार को द्वैतपने का प्रसंग प्राप्त होगा। इस प्रकार बौद्धों का चित्राद्वैत अथवा संवेदनाद्वैत को क्षणिक मानना भी ऋजुसूत्राभास है। आधारभूत द्रव्य को न मानने से समानाधिकरण्यभाव का भी अभाव हो जायेगा। दो पदार्थों का समान-अधिकरण में अर्थात् एक वस्तु में ठहरने पर ही समान अधिकरणपना बनता है, क्षणिकवाद में ऐसा होना संभव नहीं है, और सामानाधिकरण्य के अभाव में यह विशेषण-विशेष्य भाव कैसे बन सकता है और विशेषण विशेष्य के अभाव में साध्य साधन भाव भी नही बन सकता तथा द्रव्य के अभाव में संयोग ओर विभाग भी नहीं बन सकता, न क्रिया ही बन सकती है। क्रिया के अभाव में कारकों की व्यवस्था नहीं बन सकती और तब कोई भी वस्तु वास्तव में अर्थक्रियाकारी नहीं हो सकती। सदृश और विदृश परिणाम भी नहीं बन सकते, क्योंकि परिणामी द्रव्य बौद्धों को स्वीकृत नहीं। परिणामी के अभाव में परिणाम कैसे हो सकता है? और सदृश तथा विसदृश सकता

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