Book Title: Anekant 2009 Book 62 Ank 03 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 148
________________ अनेकान्त 62/4, अक्टूबर-दिसम्बर2009 तथा पाखण्डी चरित्र को लक्ष्य करके 'धर्म' की कटु आलोचना की है। धर्म की इन्हीं विकृतियों की प्रतिक्रिया स्वरूप आधुनिक विज्ञान ने विश्व और उसकी समस्याओं को समझने के लिए तर्क और परीक्षण का नया रास्ता दिखाया। विज्ञान ने यह स्पष्ट किया कि यह विश्व किसी ईश्वरीय शक्ति की इच्छा का परिणाम नहीं है। विज्ञान ने बताया कि विश्व के सभी पदार्थ कार्य-कारण भाव से सम्बद्ध हैं। विज्ञान की दृष्टि से जगत् में किसी पदार्थ का नाश नहीं होता केवल उसका रूपान्तरण होता है। इसलिए जीव या जगत् को उत्पन्न करने वाली किसी ईश्वर जैसी शक्ति का कोई औचित्य नहीं नजर आता।" सामान्य रूप से व्यक्ति स्वातंत्र्य की अवधारणा का विचार देने वाले अस्तित्ववादी दर्शनों, विज्ञान की मान्यताओं और जैन दर्शन की तत्त्वमीमांसा में कुछ तथ्यों के बारे में आम सहमति भी है। जैसे ये तीनों की प्रकृति ईश्वरवादी नहीं है। अस्तित्ववादी दर्शनों और विज्ञान की मान्यताओं के समान जैन दर्शन की तत्त्वमीमांसा के केन्द्र में 'ईश्वर' को नहीं बल्कि 'मनुष्य' या जीव को प्रतिष्ठित किया गया है। जैन दर्शन से इनकी असहमति इस दृष्टि से है कि विज्ञान सहित आधुनिक पश्चिमी दर्शन न तो कर्म सिद्धान्त में विश्वास करते हैं और न ही मानव कल्याण का एकमात्र लक्ष्य 'मोक्ष' ही इन्हें स्वीकार्य है। संक्षेप में आध निक व्यक्ति स्वातन्त्र्य का विचार इन्द्रिय सुख और भोग-विलास रूपी बेलगाम घोड़े की ऐसी सवारी है जो अवसर आने पर मनुष्य को पतन के गर्त में डाल सकती है। यहीं से प्रारम्भ होता है जैन दर्शन के व्यक्ति स्वातन्त्र्य का इतिहास। जैन दर्शन के अनुसार इस संसार में दो पदार्थ हैं जीव और अजीव। जीव चेतन है और अजीव अचेतन। दोनों को जोड़ने वाली कड़ी है कर्म। जीव या मनुष्य मूल रूप से शुद्ध चैतन्य तथा स्वतन्त्र है। किन्तु कर्मों की बेड़ी से बंधा होने के कारण वह परतन्त्र कहलाता है। परतन्त्रता भी इतनी गहरी है कि उठना-बैठना, चलना-फिरना, सोना-जागना, सुख-दु:ख की अनुभूति उसकी स्वतन्त्र अनुभूति नहीं बल्कि अजीव तत्त्व भौतिक पुद्गल पदार्थों पर आश्रित है। जन्म-जन्मान्तरों से पौद्गलिक पदार्थों की पराधीनता के अभ्यस्त जीव या मनुष्य की स्थिति उन पालतू तोतों और कबूतरों की भांति है जिन्हें उनका स्वामी यदि खुले आकाश में मुक्त भी कर देता है तो भी अपनी पराधीनता से गहरा राग और लगाव होने के कारण वे बार-बार उन्हीं पिजरों या दड़बों में कैद होने के लिए खुशी खुशी वापस आ जाते हैं। भारत की पराधीनता का इतिहास साक्षी है कि देश के कुछ स्वार्थी राजाओं ने अपने क्षुद्र स्वार्थ के लिए विदेशी शासकों के समक्ष आत्म-समर्पण किया था। बाद में उसकी भारी कीमत स्वतंत्रता सेनानियों को चुकानी पड़ी थी। आचार्य श्री देशभूषण जी विदेशी शासकों के समक्ष आत्म समर्पण की इन घटनाओं को प्रत्यक्ष रूप से देख रहे थे और उनके सामने अजीव पौद्गलिक सुखों के समक्ष मनुष्य की पराधीन मानसिकता की तर्ज पर बना जैन तत्त्व मीमांसा का इतिहास भी स्पष्ट था । इन्हीं युग मूल्यों से परिसंवाद करती आचार्य श्री की 'ओ बन्दी देख' नामक काव्य क्षणिका विशोष रूप से उल्लेखनीय है। इस काव्य क्षणिका में मानव मन द्वारा इन्द्रियों की दासता ग्रहण करने की दुर्बलताओं को रेखांकित

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