Book Title: Anekant 2009 Book 62 Ank 03 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 120
________________ अनेकान्त 62/4 अक्टूबर-दिसम्बर 2009 इस गाथा से एक प्रश्न खड़ा हो गया है कि भूतार्थ की विवक्षा से ये नव पदार्थ कैसे होंगे क्योंकि भूतार्थ तो शुद्धनय है। शुद्धनय से जीव के साथ कर्म का संबन्ध हो नहीं सकता है। तब भूतार्थ से क्या अर्थ लिया जाय? इसका समाधान टीका कर्त्री ने बहुत सुन्दर किया है कि यहाँ पर 'भूतार्थ' शब्द से अशुद्ध निश्चयनवरूप भूतार्थ को लेना चाहिए इसी गाथा की तात्पर्यवृत्ति में व्यवहार के भूतार्थं और अभूतार्थं और निश्चय के भूतार्थ- अभूतार्थ किये गये हैं। भूतार्थं के शुद्ध निश्चय और अशुद्ध निश्चय दो भेद करना चाहिए। शुद्ध निश्चय से नव पदार्थ की व्यवस्था नहीं बन सकती है किन्तु अशुद्ध निश्चय से अवश्य बनेगी। 24 इस टीका की यह भी विशेषता है कि जो विषय सामान्यतः स्पष्ट न हो रहा हो उसे माता जी ने प्रश्नोत्तर शैली में समझाकर स्पष्ट कर दिया जैसे कि- नवपदार्थ सम्यक्त्व कैसे होंगें? क्योकि आत्मा का श्रद्धान रूप भाव सम्यग्दर्शन होता है ? इसका समाधान करते हुए बताया है कि यहाँ कारण में कार्य का उपचार करके अभेदोपचार से इन नवतत्वों को ही सम्यग्दर्शन कह दिया है। चूंकि ये नवतत्त्व जो श्रद्धान रूप सम्यक्त्व हैं उसके लिए कारण हैं अथवा उसके विषय हैं। इस दृष्टि से भी विषय, नवतत्त्व और विषयी सम्यक्त्व इनमें अभेद करके अभेदोपचार से इन्हें ही सम्यक्त्व कह दिया है। इस प्रकार स्पष्टीकरण करना टीका की अपनी विशेषता है। इसकी विशेषताओं को गिनाया नहीं जा सकता है यह टीका हर दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। इसमें समग्रता के दर्शन होते हैं। आत्मख्याति के अंगभूत कलशकाव्य साथ में दिए गये हैं उनका काव्यार्थ रूप में अर्थ उपस्थित किया गया है। विशेषार्थ को अन्य ग्रंथों के प्रमाण देकर लिखने से प्रामाणिक बनाया गया है। सम्यक्त्व के प्रकरण में कलश काव्य का मुक्तक रूप में छायानुवाद दृष्टव्य 兼 जिस तरह वर्णमाल कलाप में स्वर्ण निमग्न रहा जानो। यह आत्मज्योति वैसे ही नव तत्वों के मध्य छिपी मानो ॥ सब द्रव्यों से जो भिन्न सदा है एक रूप घेतन देखा। हर पर्यायों में 'आत्मज्योति' चिच्चमत्कार भासित लेखो ॥ 44 इसके द्वारा 'आत्म ज्योति" के स्वरूप को जनसाधारण को समझाने में रोचकता उत्पन्न की गई है। इसी प्रकार आत्मख्याति के अनुवाद के साथ कलशों का काव्यार्थ और उनका भी भावार्थ देकर टीका को अध्यात्मरसिक विद्वानों के लिए स्पृहणीय बना दिया गया है। आचार्य जयसेन स्वामी सम्यक्त्व की प्रतिपादिका उक्त गाथा से ही जीवाधिकार का प्रारंभ करते है। जयसेनाचार्य के कथ्य को बहुत सरल में आर्यिका श्री ने प्रस्तुत किया है। कि ये नव पदार्थ अभेद रत्नत्रय लक्षण निर्विकल्पध्यान में अभूतार्थ है इसके पहले तक भूतार्थ हैं। इससे भूतार्थ का प्रयोजनीभूत यह अर्थ सुघटित हो जाता है और इससे यह बात भी स्पष्ट हो जाती है कि शुद्धोपयोग के पहले पहले यह निश्चय सम्यक्त्व भी स्पष्ट हो

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