Book Title: Anekant 2009 Book 62 Ank 03 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 80
________________ 80 अनेकान्त 62/3, जुलाई - सितम्बर 2009 को केवलज्ञान होने पर विश्वकल्याण का धर्मोपदेश समस्त संसारी जीवों को समय-समय पर मिलता रहता है। तीर्थकर का धर्मोपदेश प्रधान योग्य श्रोता के बिना प्रारंभ ही नहीं होता है। इस प्रमुख योग्य श्रोता को गणधर कहते हैं। प्रत्येक तीर्थकर के गणधर होते हैं। भगवान् महावीर को केवलज्ञान होने के बाद 66 दिन तक प्रमुख योग्य श्रोता/गणधर न मिलने से धर्मोपदेश प्रारंभ ही नहीं हुआ था। विश्वकल्याण का यह धर्मोपदेश एक धर्म सभा में प्राप्त होता है, जिसे जैन आगमों एवं पुराणों में समवशरण कहा गया है। जिनसभा, जिनपुर, जिनावास आदि तीर्थंकरों की धर्मसभा के नामान्तर भी प्राप्त होते हैं। ये सभी पर्यायवाची है। जहाँ पर तीर्थकर साक्षात् विराजमान होकर संसारी जीवों को कल्याण का मार्ग बताते हैं। उसका नाम समवशरण है। समवशरण में प्रत्येक प्राणी को समानता पूर्वक धर्मोपदेश सुनने की शरण मिलती है, इसलिए समवशरण यह सार्थक नाम है। समवशरण में कोई भेद भाव नहीं होता है। प्रत्येक जीव को बैठने के लिए समान स्थान मिलता है। तीर्थकर परमात्मा की यह धर्मसभा अतिविशिष्ट धर्मसभा बहुत ही विस्तृत क्षेत्र में होती है। तीर्थकर आदिनाथ का समवशरण योजन विस्तार वाला था। शेष तीर्थकरों का 2-2 कोस कम होता गया। भगवान् महावीर का समवसरण 1/4 योजन विस्तार वाला था। इस समवसरण का स्वरूप वर्णन करते समय आचार्य यतिवृषभ प्रारंभ में कहते हैं - उवमातिदं ताणं को सक्कइ वण्णिदुं सयलरूवं। एण्हिं लवमेत्तं साहेमि जहाणुपुव्वीए॥ अर्थ - उन समवसरणों के संपूर्ण अनुपम स्वरूप का वर्णन करने में कौन समर्थ है। अब मैं यतिवृषभाचार्य आनुपूर्वी क्रम से उनके स्वरूप का अल्पमात्र कथन करता हूँ। ऐसी अनुपम धर्मसभा रूप समवसरण का जैन आगमों एवं पुराणों में संक्षिप्त वर्णन प्राप्त होता है। मुख्यता से समवसरण का वर्णन तिलोयपण्णति, आदिपुराण, हरिवंशपुराण में उपलब्ध है। समवसरण का अत्यंत सुन्दर वर्णन इन तीन ग्रंथों में ही विस्तार से वर्णित है। आचार्य जिनसेन समवसरण का वर्णन प्रारंभ करने से पूर्व ही भव्य जीवों को इस वर्णन सुनने से क्या लाभ होगा। इसको मनोहारी शब्द छटा द्वारा कहते हैं- "श्रुतेन येन संप्रीति भजेद् भव्यात्मनां मनः"| जिस समवसरण का वर्णन सुनने मात्र से भव्यजीवों का मन प्रसन्नता को प्राप्त होता है। यह समवसरण पृथ्वी तल से पाँच हजार धनुष ऊपर आकाश में निर्मित होता है। इसका निर्माण सौधर्म इन्द्र की आज्ञा से कुबेर विक्रिया द्वारा अद्भुत रूप में करता है। ताहे सक्काणाए जिणाण सयलाण समवसरणाणिं। विक्किरियया धणदो विरएदि विचित्तरूवेहि।।' इस धर्म सभा की रचना गोलाकृति में होती है। उसकी चारों दिशाओं में आकाश में बीस बीस हजार सीढ़ियां बनी हुई होती हैं। इन सीढ़ियों पर सभी लोग सहज रूप में चढ़ जाते हैं, यह समवसरण की विशेषता होती है। प्रत्येक दिशा में सीढ़ियों से लगी एक एक चौड़ापथ बना होता है जो समवसरण के केन्द्र में स्थित गन्धकुटी के प्रथम पीठ तक जाता है।" समवसरण में क्रम से 1. चैत्य प्रासाद भूमि 2. खातिकाभूमि 3. लतावन भूमि 4.

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