________________
अनेकान्त 62/4 अक्टूबर-दिसम्बर 2009
5
सम्पादकीय
'भिन्नरुचिर्हि लोक:' इस बहुप्रचलित कथन के अनुसार लोगों की रुचि भिन्न- भिन्न होती है सब विषय सभी को रुचिकर लगें, यह संभव नहीं है। फिर भी ' अनेकान्त' के प्रकाशन में हम इस बात का ध्यान रखने का प्रयास कर रहे हैं कि आगम के आलोक में अनुसंधित्सुओं, तत्त्वजिज्ञासुओं एवं आचारमार्गारोहिओं को उनकी रुचि के अनुकूल सामग्री उपलब्ध करायें।
अनादिकाल से भारतवर्ष में दो विचारधारायें सतत प्रवाहमान रही हैं- श्रमण और ब्राह्मण। इन दोनों विचारधाराओं में चिन्तन की दृष्टि से मतभेद तो रहे हैं, परन्तु इन मतभेदों ने सामाजिक सौमनस्य को कभी भी विपरीत दिशा में नहीं जाने दिया है। 'वादे वादे जायते तत्त्वबोधः ' भारतीय दार्शनिकों की विचारणा रही है। इसीलिए विभिन्न दार्शनिकों ने परस्पर खण्डन- मण्डन करते हुए भी प्रायः असहिष्णुता का भाव प्रदर्शित नहीं किया है हाँ कभी ऐसा भी समय था जब 'हस्तिना ताड्यमानोऽपि न गच्छेज्जैन मन्दिरम्' जैसी असहिष्णु उक्तियाँ भी प्रचलित हुई, किन्तु उन्हें जनमानस ने नकार दिया। आज अन्तःशास्त्रीय अध्ययन, चिन्तन एवं अनुसंधान का समय है अतः ऐसे तथ्यों को समुद्घाटित करने की आवश्यकता है, जिनसे सामाजिक सद्भाव स्थापित हो और विश्व में शान्ति का वातावरण बने। इस दृष्टि से इस अंक में प्रो. दयानन्द भार्गव का आलेख 'जैनधर्म चिन्तन और सामाजिक विज्ञान' दिशानिर्देश कर सकता है। इस अंक में प्रकाशित अन्य अन्तःशास्त्रीय अनुसंधानात्मक आलेखों को तत्त्वबोध की दृष्टि से देखा जाना चाहिए।
हमें यह समझने की अत्यन्त आवश्यकता है कि अभद्र भाषा का प्रयोग न केवल निन्दनीय है, अपितु घिनौना पाप है परमत का खण्डन या स्वमत का मण्डन तो किसी पर कीचड़ उछाले बिना भी किया जा सकता है आजकल 'दिग्विजय' के अभिलाषी कुछ विद्वन्मानी जिस ढंग से अपने ही साधर्मियों पर कुवचनाघात कर रहे हैं, हम चाहते हैं कि उनका ऐसा पुण्योदय हो कि वे सुवचनों का आश्रय लेकर अपनी बात कहें अन्य पक्ष के मानी विद्वानों से भी अनुरोध है कि वे परवादविवर्जित स्वमत प्रतिपादन को अधिक महत्त्व दें और समाज में सौहार्द स्थापित करना भी धर्म समझें। किमधिकं सुविज्ञेषु
जयकुमार जैन