Book Title: Anekant 2005 Book 58 Ank 01 to 04 Author(s): Jaikumar Jain Publisher: Veer Seva Mandir TrustPage 16
________________ अनेकान्त-58/1-2 13 के समान उनके जीवन में भी चारण-ऋद्धित्व एवं विदेह गमन का विवरण आया (इनका विशप आधार नहीं मिलता)। वस्तुतः वे मानव से अतिमानव मान लिये गये। इस पर अभी तक किसी ने प्रकाश नहीं डाला। इन मतवादों के साथ उनके निश्चय-व्यवहारगत समयसारी विवरण तथा उनके साहित्य की भाषा के स्वरूप आदि के कारण भी अनेक भ्रांतियां उत्पन्न हुई हैं। उनके श्वेताम्बरों से शास्त्रार्थ, स्त्रीमुक्ति निषेध, अचेलकत्व-समर्थन तथा टीका ग्रंथो आदि के कारण उनके समय-निर्णय पर भी अभी भी असहमति बनी हुई है। यह प्रथम सदी से सातवीं सदी तक माना जाता है। सामान्य परम्परा के अनुसार, अनेक मूलग्रन्थों की टीकायें उनकी रचना के अधिकाधिक तीन-चार सौ वर्ष के अन्तराल से हुई हैं, जैसा सारणी-1 से प्रकट सारणी 1 : मूलग्रन्थ और उनकी टीकाओं का रचनाकाल क्र मूल ग्रन्थ रचनाकाल टीका टीकाकाल लगभग लगभग 01 कपायपाहुड 1-2री सदी यतिवृषभ चूर्णि 5-6वी सदी 02 पटखण्डागम 1-2री सदी पद्धति 3री सदी 03 तत्वार्थसूत्र 3-4थी सदी सवार्थसिद्धि 5वीं सदी 04 भगवती आराधना 2-3री सदी आराधना पजिका 4थी सदी 05 मूलाचार 2-3री सदी वसुनदि 11वी सदी 06 कुन्दकुन्द ग्रथत्रय 2-3री सदी दो टीकाये 10-11वी सदी 07 श्वेतावर आगम सकलन 5वी सदी प्रथम व्याख्या साहित्य 6वी सदी 08. परीक्षामुख 10-11वीं सदी प्रमेयकमलमार्तण्ड 11वी सदी इस आधार पर कुन्दकुन्द के समय का अनुमान लगाया जा सकता है। उनके समयमार ने तो जैनों का एक नया पंथ ही खडा कर दिया है जो उनके अनेक कथनों के बावजूद भी एकपक्षीय बन गया है। वस्तुतः अनेकांतवादी जैन अपने-अपने पक्ष के एकांतवादी हो गये हैं और महावीर के नाम पर उनके दर्शन को ही विदलित करते जा रहे हैं। अनेक विद्वानों ने उनके निश्चय-व्यवहार की समन्वय-वादिता पर विवरण दिये हैं। पर निश्चय तो अटल एवं अनिर्वचनीय होता है, केवलज्ञान गम्य होता है। उसे गृहस्थ कैसे समझे और अनुभव मेंPage Navigation
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