Book Title: Anekant 2003 Book 56 Ank 01 to 04 Author(s): Jaikumar Jain Publisher: Veer Seva Mandir Trust View full book textPage 6
________________ अनेकान्त-56/1-2 प्रभृति में जो मर्यादा और नियमों की प्रतिष्ठा करता है, मानवीय मूल्यों की स्थापना करता है और प्राणि-जगत् मे सुखकल्याण का प्रादुर्भाव करता है। मूलाचार ग्रन्थ मे समाचार की महत्ता को बतलाते हुए लिखा है समदा समाचारो सम्माचारो समो वा आचारो। सव्वेसिं सम्माणं सामाचारो दु आचारो॥ -गा. 123 अतएव स्पष्ट है कि अपने देश की गौरवपूर्ण परम्पराओं के अनुकूल विश्व-शान्ति के लिए समताचार अहिसा की साधना अत्यावश्यक है। आज की परिवर्तित होती हुई परिस्थितियों और जीवन मूल्यों के अनुसार समाज और समूह के संघर्ष की समाप्ति का एक मात्र उपाय अहिंसाचरण ही है। ___ अहिमा के विषय मे जैन सस्कृति पग-पग पर सन्देश देती हुई अग्रसर होती है। जैन सस्कृति के वरिष्ठ विधायको के अन्त:करण में समूचे विश्व को ही नहीं. प्राणीमात्र को सुखी देखने की लालसा थी। यह उनके अन्त:करण की पुकार थी। गहन अनुभृति की अभिव्यक्ति। यह अनुभूति शुद्ध प्रेम की अनुभूति थी, रागमुक्त प्रेम की। प्रेम का यही रूप सार्वभौमिक होता है। यह एक के प्रति नही, समस्त के प्रति होता है। तभी प्राणीमात्र का स्पन्दन अपनी आत्मा में सुनाई पड़ता है। इस स्पन्दन मे सुख भी होता है, अपार दु:ख भी। और तभी उस अपार दु:ख के प्रति अन्तरंग की गहराइयो से करुणा फूट पड़ती है। व्यक्ति विशंप से निकलकर समष्टि के रूप मे दु:ख-निवारण की बात सोचने लगता है। यही अहिसा के जन्म की पृष्ठभूमि है। ___अहिंसा की मूलभावना प्राणिमात्र को जीने का अधिकार प्रदान करती है। अपने लिये जीना कोई जीवन है? वह तो एक मशीनी जीवन है। जो अपने लिये नही जीता, वास्तव में वही सबका होकर जीता है। जैन सस्कृति के नियामको का हृदय इसी भावना से अनुप्राणित था इसलिए उन्होंने समवेत स्वर मे कहा-सब जीव संसार मे जीना चाहते हैं। मरना कोई नहीं चाहता। क्योंकि एक गन्दगी के कीड़े और स्वर्ग के अधिपति-इन्द्र दोनों के हृदय मे जीवन की आकाक्षा और मृत्यु का भय समान है। अत: सबको अपना जीवन प्यारा है।' इसीलिए सोते-उठते, चलते-फिरते तथा छोटे-बड़े प्रत्येक कार्य को करते हुएPage Navigation
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