Book Title: Anekant 2003 Book 56 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 5
________________ अहिंसा : स्वरूप एवं व्यवहार -डा. प्रेम सुमन जैन अहिसा-सस्कृति प्रधान जैनधर्म मे समता, सर्वभूतदया, संयम जैसे अनेक शब्द अहिंसा आचरण के लिए प्रयुक्त है। वास्तव में जहां भी राग-द्वेषमयी प्रवृत्ति दिखलायी पड़ेगी वहा हिंसा किसी न किसी रूप में उपस्थित हो जाएगी। सन्देह, अविश्वास, विरोध, क्रूरता और घृणा का परिहार प्रेम, उदारता और सहानुभूति के बिना सभव नही है। प्रकृति और मानव दोनों की क्रूरताओ का निराकरण सयम द्वारा ही सभव है। इसी कारण जैनाचार्यों ने तीर्थ का विवेचन करते हुए कषायरहित निर्मल संयम की प्रवृत्ति को ही धर्म कहा है। यह सयमरूप अहिसाधर्म वैयक्तिक और सामाजिक दोनों ही क्षेत्रों मे समता और शान्ति स्थापित कर सकता है। इस धर्म का आचरण करने पर स्वार्थ, विद्वेष, सन्देह और अविश्वास को कही भी स्थान नही है। व्यक्ति और समाज के सम्बन्धो का परिष्कार भी संयम या अहिंसक प्रवृत्तियों द्वारा ही सभव है। कुन्दकुन्द स्वामी ने बताया है जं णिम्मलं सुधम्म सम्मत्तं संजमं तव णाणं। तं तित्थं जिणमग्गे हवेइ जदि संतिभावेण।। -बो. पा., गा. 27 राग-द्वेष का अभावरूप समताचरण ही व्यक्ति और समूह के मूल्यो को सुस्थिर रख सकता है। आत्मोत्थान के लिए यह जितना आवश्यक है, उतना ही जीवन और जगत की विभिन्न समस्याओ के समाधान के लिए भी। वर्गभेद, जातिभेद आदि विभिन्न विषमताओं में समत्व और शान्ति का समाधान समता या समाचार ही है। मानवीय मूल्यों में जीवन को नियंत्रित और नीतियुक्त बनाये रखने की क्षमता एकमात्र समता युक्त अहिसाचरण में ही है। युद्ध, विद्वेष और शत्रुता से मानव समाज की रक्षा करने के हेतु विधायक शब्द का प्रयोग करे तो वह शब्द समाचार है। कुटुम्ब, समाज, शिक्षा, व्यापार, शासन, सगठन

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