Book Title: Anekant 1953 09 Author(s): Jugalkishor Mukhtar Publisher: Jugalkishor Mukhtar View full book textPage 5
________________ किरण ४] दशलाक्षणिक धर्मस्वरूप 3 उत्तम-आर्जव उत्तम-शौच अज्जवणामेण गुणं मायासल्लस्स होइ णिएणसे। परवत्थुलोहरहिदो चित्तो भव्वस्स होइ पुण जाया। मण-परिणाम-विसुद्धी तेण विणा णेव संभवइ ॥२७ । तइया सोचं णेयं ए/ तित्थजल-खालणे सोचं ॥४॥ मिच्छत्तमलविलित्तो विसयकसाएहिं मुज्झिदो जीवो। जं किंचिजि णियमाणसि चिंतदि भव्वो य तंजि वयणेण तिच्थजलेण विण्हाणे किह सोचो होदि भो आद ॥२५ लोयहं अग्गइ अक्खइ तमज्जवं णाम धम्मंगं ॥२८॥ रिजु परिणाम अज्जव सुहगइ-गमणस्स कारणं तं जि। परधापरबहुसंगे जं जिच्छिहा ताहि चाए तं धम्मो । मणकूर पावं दुग्गइ-पह संबलं त चि ॥२६॥ ' पावस्स मूलुलोहो तम्हा लोहो ण कायब्वो ॥४६॥ जिह सिसु णियघरवत्थू पुच्छंताणं-णराणमहियाणं ।। जो पुणु वय-तव-सुद्धो देहाइय दव्य-णिम्ममो संतो। घरमम्मु सच्चु अक्खइ तिह अज्जवधम्मसंजुत्तो ॥३० । सो रय-मलिणु वि देहे परमसुई णिम्मलो सिट्ठो ॥४॥ इह पर लोयहि य माया-च हि अज्जवं धम्म । देहो बहुमलकिण्णो जलभारे हाविदो ण सुज्मेइ। तं पालिज्जइ भव्वें सिव-पय-गमणाउरेणेव ॥३१॥ मज्जपओरिउ कुभो बाहिरपक्वालिदोपि सोअसुइ ॥४८ अज्जव धम्महु मूलं सज्माणसिद्धीयरं हि तवसारं। केस णह-दंत आई चेयणसंगेण तेवि सुपवित्ता । त्ण विणा गुणवंतु वि समाइउ वुच्चदे लोए ॥३२॥ कप्पूराइवि दव्या भव्ववि मालिणाय देहस्स ॥४६॥ चेयणरूवमखंडं विगयवियप्पं सहावसंसिद्ध। उत्तम-सयम णाणमउ अप्पाणं अज्जवभावेण विप्फुरदि ॥३३॥ तस-थावर-जीवाणं मणवयकारण रक्खणं जत्थ । पाणासंजम णाम हवइ धुओ पावणो तत्स्थ ॥५०॥ उत्तम-सत्य पचिंदियमणुछउ सग सग-विसएस णिच धावंतो। अलियाला वयणीह अदंतुरा मम्मछेयणे णिच्चं। रुधिविजहिं धारिजहि-इदियसंजम होइ ॥५१॥ लोहेण कलुसिदा जा ण हवदि जीहाय सा छुरिया ॥ ४ संमायिफच्छेदोपस्थापनापरिहारविशुद्धि जसु वयणादो वयणं अलियं णिग्गमइ तं जिणउ वयणं सूक्ष्मसांपराययथाऽख्यातभेदेन संयम: पंचविधोभवति विवरसमाणं णेयं जीहा अहिणी णिवासत्थे ।। ३५ सावज्जकिरियविरमणलक्खणपरिणामशुद्धियरणं हिं। ही हो अलियपभासी परसंतावीय णिदयारीय। चारित्त भारधरण सामाइय णाम तं णैयं ॥ ५२ ॥ जि णामग्गहणं ण कायव्वं ॥३६॥ आप्पसरुवि सचितो जंठाविज्जइ खणे खणे खलिदो। जो पुणु भणदि असच्चंणासदि तस्सेव संजमं सीलं। छेदोवट्टवणयं चरणं तं चेबणायव्वं ॥५३।। परमअहिंसाधम्म हवइण तं भव्व मोत्तव्वं ॥३॥ पडि दिण गाओ मत्तं विहरदि मोहक्खएप सीलदो। णउ भासिज्जइ अलियं भासा विज्जइण अण्णु णरुमंडि कारणु किंचि लहेप्पिणु तिठ्ठई छम्मास एक्कपाएण ॥५४ भासिज्जं तु सचित्ते अणुमणणं णेव कायव्वं ॥३८॥ परिणामसुद्धिहेदो णिवसंतो अयणु माणु सो सवणो। जह हह पत्तविओवो भामिणि घर लच्छि जोज विहडेड पावदि केवलणाणं णहचारणरिद्धिवासा हू ॥५॥ णियपाणविजई गच्छहि तहावि णो भासदेसच्चं ॥३६॥ इदि परिहारविशुद्धी चरियं सुहमति संपरायहि । सच्चेण गरो लोयहि देवसमाणो वि मराबादे एल्थु। उवसमियकसायखएण दुदहमे गुणठाणितुरियहि ॥५६ माणाझयणं तं तं मतं सुत्तं पविप्फुरदे ॥४०॥ चरित्तमोहपयडी खीयंति मुणीसरस्स सज्झाणे । परदोसं जो पयडड णियगण अणहांत लोएस्थिरते। जहि रिद्धि लद्धि तत्स्थजि जहखायं संजमं होदि ॥२७॥ गिदइ संजििणयरं तंपि असच्चं महादासं ॥४॥ छठ्ठम गुणसु पढमं छह सग वसु णवमि विदिय पुणुतिदियं जं परसवणहं सुलं हिंसामूलं हि जंजि पावड्ढं। दहमगुणठाणि तुरियं सेसठ्ठाणे जहाखायं ॥८॥ परमम्मोच्चेडणय सच्चमवीदं असच्चं तं ॥४२॥ उत्तम-तप सच्चं तं बोल्लिज्जइ उवएसिज्जेह तंजि फुडु सच्चं। णरभउ पाविवि दुलह कुलं विशुद्ध लहेवि वरबुद्धी। आयरणिज्जं सच्चं तेण जुदं सव्वु सकियत्त्थं ॥४॥ घरमोहं मेल्लेप्पिणु तवं पवितं हि कायव्व ॥१६॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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