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किरण ३] वंगीय जैन पुरावृत्त
[ ११६ के लिये उस मोटरका क्या उपयोग हो सकता है ? यह तरह लोग रुपया पैसाके दानको तथा आत्माकी स्वावभी हम मानते हैं कि देश और विदेशोंकी परिस्थितियोंकी __ लम्बन शक्तिके विकासको अवहेलना करके अक्रम और जानकारी के लिये रेडियोका उपयोग आवश्यक है परन्तु अव्यवस्थित ढंगसे किये गये भोगादिके त्यागको त्याग अनुपयोगी और अश्लील गानों द्वारा कानोंका तर्पण धर्ममें गर्मित कर लेते हैं। परन्तु वे यह नहीं सोचते कि और मनोरंजनके लिए उसका क्या उपयोग हो सकता रुपया पैसाका दान आदिके चार धोंमें ही यथा योग्य है ? यही बात वैभवकी चकाचौंधसे परिपूर्ण महलों, चम- गर्भित होता है और जिसमें प्रारमशक्तिके विकासको कीले भड़कीले वस्त्रों और दुष्पाच्य गरिष्ठ भोजनोंके बारेमें अवहेलना की गयी है ऐसे अक्रम और अव्यवस्थित टगसे भी समझना चाहिये।
किया गया त्याग तो धर्मकी मर्यादामें ही नहीं पा सकता अन्तिम निवेदन
है अतः प्रत्येक मनुष्य और कमसे कम विचारक विद्वानोंका ऐसे अन्धकारपूर्ण वातावरणमें उक्त दश धर्मोका तो यह कर्तव्य है कि वे दश धर्मों के स्वरूप और उनके अर्थप्रकाश ही मानवको सद्बुद्धि प्रदान कर सकता है परन्त पूर्ण क्रमको समझनेका प्रयत्न करें तथा स्वयं उसी ढंगसे इन धोके स्वरूप और मर्यादाओंके विषयमें भी लोग उनके पालन करनेका प्रयत्न करें और साधारण जनको अनभिज्ञ हो रहे हैं। प्रायः लोगोंका यह खयाल है कि भी समझानका प्रयत्न कर ताकि मनुष्यमात्रम मानवताका वीयकी रक्षा करना ही ब्रह्मचर्य है परन्तु वीर्य रक्षाकी संचार हो और समस्तजन अपने जीवनको सुखी बनानेका मर्यादा संयम और त्याग धम् में ही पूर्ण हो जाती है इसी मार्ग प्राप्त कर सके ।
ता. १७-८-१५
उत्तम क्षमा
(परमानन्द जैन शास्त्री) येन केनापि दुष्टेन पीड़ितेनापि कुत्रचित् । चित्तको अशान्त नहीं होने देता, उन विभाव भावोंको
क्षमा त्याज्यान भव्येन स्वर्गमोक्षाभिलाषिणा॥ अनात्मभाव अथवा आत्मगुणोंका घातक समझकर उन्हें - जिस किसी दुष्ट व्यक्तिके द्वारा पीड़ित होने पर भी पचा देता है-उनके उभरनेकी सामर्थ्यको अक्रोध गुणकी स्वर्ग और मोक्षकी अभिलाषा वाले व्यक्तिको क्षमा नहीं निर्मल अग्निमें जला देता है और अपनेको वह निर्मल छोड़ना चाहिये। क्योंकि क्षमा श्रात्माका धर्म है, स्वभाव गुणोंकी उस विमल सरितामें सराबोर रखता है जहां तथा गुण है, वह आत्मामें ही रहता है। बाह्य विकृतिके असाधुपनकी उस दुर्भावनाका पहुँचना भी संभव नहीं कारण आत्माका वह गुण भले ही तिरोहित या पाच्छा
होता । मोह क्षोभसे होने वाले रागद्वेष रूप विकारात्मक दित हो जाय, अथवा प्रात्मा उस विकारके 'कारण अपने परिणाम जहां ठहर ही नहीं सकते; किन्तु श्रात्माकी स्थिति स्वभावसे च्युत होकर राम-द्वेषादि रूप विभावभावों में शान्त और समता रससे श्रोत-प्रोत रहती है। कंचन, परिणत हो जाय, परन्तु उसके क्षमा गुणरूप निज स्वभावका कांच निन्दा स्तुति-पूजा, अनादर, मणि-बोष्ट सुख दुख, प्रभाव नहीं हो सकता। अन्यथा वह आत्माका स्वभाव जीबन मरण, संपत् विपत् आदि कार्यों में समता बनी नहीं बन सकता। 'क्षमा वीरस्य भूषणम्' वाक्यके अनुसार रहती है, वही व्यक्ति वीर तथा धीर और आत्म समाको वीर व्यक्तिका श्राभूषण माना गया है। वास्तवमें स्वातंत्र्यताका अधिकारी होता है। उसे ही स्वात्मोपलब्धि चमा उस वीर व्यक्तिमें ही होती है जो प्रतिकारकी सामर्थ्य अपना स्वामी बनाती है। रखता हुआ भी किसी असमर्थ व्यक्ति द्वारा होने वाले अप- किन्तु जो व्यक्ति सदृष्टि नहीं, कायर और अज्ञानी है राधको क्षमा कर देता है-उसे दण्ड नहीं देता, और न वस्तुतत्त्वको ठीक रूपसे नहीं समझता, वह जरासे उसके प्रति किसी भी प्रकारका असंतोष अथवा बदला निमित्त मिलने पर क्रोधकी श्रागमें जलने लगता हैं, लेनेकी भावनाको हृदयमें स्थान ही देता है। किन्तु मन प्रतीकारकी सामर्थ्य के प्रभावमें भी आई हुई श्रापदाका स्थितिके विकृत होनेके कारण समुपस्थित होने पर भी प्रतिकार करना चाहता है किन्तु उसका प्रतीकार न
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