Book Title: Anekant 1953 09
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jugalkishor Mukhtar

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Page 37
________________ किरण ४ ] आकिंचन्य धर्म 1 1 है। उसीकी भीड़ में अपने को सुखी अनुभव करते हैं उसके सचयसे ही अपनी मान प्रतिष्ठाको ऊंचा उठा हुआ समझ रहे हैं जो जितना अधिक परिग्रही है वह लोकमें उतना ही अधिक प्रतिष्ठित माना जाता है और पैसेके कारण लोग उसकी इज्जत करते हैं। मानो धनागम उसकी मानप्रतिष्ठाका आज केन्द्रसा बना हुआ I जो निर्धन है, गरीब है, बेचारा खानेके लिये मुहताज रहता है, तन ढकनेको भी जिसके पास वस्त्र नहीं है, भरपेट असका भी प्रवन्ध नहीं है, मांगकर उदरपूर्ति करना जिसे संतापका कारण है, जो मांगकर खानेसे भूखों मर जाना कहीं अच्छा समझ रहा है, ऐसे व्यक्तिका लोकमें कोई आदर नहीं है। जिसे संसारका वैभव दुःखद प्रतीत होता है, जो बास फुसकी एक छोटीसी झोपड़ी में सुखपूर्वक रह रहा है, पर दरिद्रता उसके लिये अभिशाप बन रही है जो अपने पूर्वकृत कमका फल भोगता हुआ भी कभी दिलगीर नहीं होता, मानवताका उभार जिसके रोम रोममें भिद रहा है, जो अपने से भी असहाय एवं दुःखी प्राणियोंके दुःखमें सहानुभूति रखता है, उन्हें सान्वना और यक्ष प्रदान करता हैभले ही यह निर्धन हो, बड़े बड़े महलोंमें न रहकर फूलकी बड़े बड़े झोपड़ी में रहता हो, तो भी छोड़ बड़ा होनेके योग्य है। लोकमें क्योंकि उसकी आमा निर्मल है, विचारोंमें उपचता है. वह कर्तव्य पथ पर भारूद है, इसीसे वास्तव में यह मानव है । इस आकिंचन्य धर्मके दो अधिकारी होते हैं, एक परिग्रहकी भीड़में रहने वाला विवेकी गृहस्थ, और दूसरा आत्मसाधना करने वाला तपस्वी साधु । जो गृहस्य सांसारिक कार्योंनें लग रहा है. न्याय और नीतिले धनार्जन करता हुआ मानवताके नैतिक स्तरसे नहीं गिरा है, जो सदा इस बातका ध्यान रखता है कि मैं मानव हूँ और दूसरे भी जोक में मानव हैं ये भी मेरे ही समान हैं, मुझे उनके प्रति घृणा अथवा तिरस्कारकी दृष्टि रखना प्रयुक्त है। हाँ, यदि उनमें कुछ कमी है अथवा पुरुषार्थकी कमजोरी है, तो वे उसे दूर करनेका यत्न करें । परन्तु धनादिकके मदमें अपने को न भुलायें, विवेकले काम लें । विवेक ही मानव जीवनको ऊंचा उठाने वाला है साहस और धैर्य उसके सहायक है। वह सद्दृष्टि हैवस्तुतयमें अडोल भद्धा रखता है, हृदयमें कोमलता और Jain Education International [ १४१ 1 सरलता है, वही सच्या मानव है को परिग्रह संचयमें खालसा नहीं रखता, घोर न यहा तद्वा प्रवृत्तिसे उसे बढ़ाना ही चाहता है जिसे भोगोंकी अनुब्धिमें चिन्ता नहीं होती, और न दूसरेकी वृद्धिमें बाह ही होती है। जिसकी परमें आत्मकल्पनाका अभाव है वह सदा संतोषी और अपने दयालु स्वभावसे अहंकार की उस चट्टानसे कभी नहीं टकराता जो मानव जीवनके पतनमें कारण है। जिसकी चनादि वैभवमें ममता नहीं उसे अपना नहीं मानता, किन्तु कर्मोदयका फल समझकर उसमें हर्ष और विषाद नहीं करता, साता परिणतिमें सुखी और असावा में दुःखी अथवा दिलगीर नहीं होता किन्तु विवेकी और माध्यस्थ भावना तत्पर रहता है। वह आकिंचन्य धर्मका एक देश अधिकारी है। । साधु है भ्रात्म-साधना के दुर्गम मार्ग में विचरण कर रहा है, जिसने साधुवृति अंगीकार करनेसे पहले ही संसारके वैभवसे होने वाली विषमताका मनन किया है और अपने विवेक बलसे उसमें होने वाली प्रांतरिक ममता श्रथवा मोहका सर्वथा त्याग किया है। जिसने भोगोंको निस्सार समझ कर छोड़ा है और अपने स्वरूपमें निष्ठ होने का प्रयत्न किया है जो बाहर भीतर एक सा नग्न है, । जिसके पास संयम और ज्ञानार्जनके उपकरवाके सिवाय कोई अन्य परमाणुमात्र भी पदार्थ नहीं है, जो परमाणुमात्रको भी अपना नहीं मानता वह वास्तवमें साधु है और आकिंचन्य धर्मका सर्वथा अधिकारी है। 1 क्योंकि पर पदार्थकी चाकांचाही राग है, परिग्रह है। जहाँ पदार्थका संग्रह नहीं है और न लाखों करोड़ोंकी सम्पदा ही है किन्तु एक ममता है, उनमें अपनेपन की भावना है, वहाँ कियन्यधर्मका अभाव है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि पर पदार्थ चाहे रहे या न रहे उसमें ममता अथवा रागका अभाव हुए विना श्राकिंचन्यका सद्भाव नहीं हो सकता, क्योंकि उसमें निस्पृहता जो नहीं है । अतएव जो साधु रत्नत्रयका साधन करता है, देह भोगों से सर्वधा निस्पृह है, संयम और ज्ञानके उपकरण पीछी, कमण्डलु, शास्त्रादिमें भी ममता नहीं है- जो श्रात्म स्वातन्त्र्यका श्रभिलाषी है— कर्मबन्धनके छुड़ाने में उत्सुक है, वास्तवमें वही आकिंचन्य धर्मका स्वामी है। उत्तम आकिंचन गुण जानो, परिमार्चिता दुखही मानो फाँस तनिकसी तनमें साल, चाह लंगोटीकी दुख भाल । । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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