Book Title: Anekant 1953 09
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jugalkishor Mukhtar

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Page 40
________________ १४४] अनेकान्त [किरण ४ पूर्ण ज्ञान प्राप्त करके पुद्गल या जड शरीरसे एकदम अपनी जातिकी विशेषताके अनुसार बिना सिखलाए अपने छुटकारा या मुक्ति (मोच)न पा जाय । एक बार आप अपने कर्म करने लगता है। यह बात केवल कार्माण परमविशुद्ध रूप प्राप्त कर लेने पर आत्मा का सम्बन्ध शरीरकी अवस्थिति-द्वारा ही सम्भव है । इस विषयकी या साथ पुनः जडके साथ नहीं हो सकता। अज्ञान विशद ब्याख्या जैन शास्त्रोंमें मिलेगी । जीवधारियोंके जड़ताके कारण है और जड़का संयोग अज्ञानके कारण है। अपने आप अपना कर्म करनेकी विचित्रताको समझानेके ज्ञानकी वृद्धि पुद्गलके बन्धन या चापको ढीला बनाती लिए औरोंने भी अपने सुझाव दिए हैं-पर वे जरा भी है। ज्ञानकी कमी या अज्ञानकी वृद्धि जडताको दृढ़ करती सन्तोषजनक नहीं। पास्मासे युक्त कार्माण शरीर-जैसा है या पुद्गलके संयोगको अधिक सुदृढ बनाती है। ज्ञान जैन शास्त्रोंमें प्रतिपादित है वैसा ही स्वीकार करनेसे प्रास्माका अपना गुण है। जब भारमा पूर्णपने अपने गुण इस समस्याका समाधान ठीक ठीक होता है। को विकसित कर लेता है तो उसका सम्बन्ध पुद्गलसे इस विषयमें मैं एक लेख अनेकान्तके गत अंकमें अपने आप छूट जाता है। पर जब तक यह पूर्णता नहीं "कोका रसायनिक सम्मिश्रण" शीर्षकसे, लिख चुका होती आत्मा तो किसी न किसी शरीरके साथ ही रह हैं। मेरे "जीवन और विश्वके परिवर्तनोंका रहस्य" तथा सकता है तब तक बगैर शरीरके अकेला हो ही नहीं "शरीरका रूप और कर्म" नामक दो लेखोंमें भी इन मकता । मन और बुद्धि-युक्त मानव शरीरके द्वारा ही विषयों पर बहत कुछ प्रकाश डाला गया है-उन्हें पढ़नेसे । प्रास्माका पूर्ण ज्ञान विकसित हो सकता है, अन्यथा तो एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण और काफी जानकारी प्राप्त हो यह सम्भव ही नहीं है। इसीलिए मानव जन्मकी इतनी सकती है। बड़ी महत्ता मानी गई है। इस शरीरके भी कई भाग है प्रास्माकी चेतना रहनेके ही कारण जीवनी शक्ति भी रहती : जिनमें कार्माण शरीर और तेजस शरीर बो सर्वदा प्रात्मा है और जीवनी शक्ति द्वारा शरीरके आधारसे ही कर्म होते के साथ रहते हैं और हाइमांसमय दृश्य औदारिक शरीर हैं और फलस्वरूप दुख सुख इत्यादि भी चेतना द्वारा ही AM मृत्युके बाद यहीं रह जाता है, जबकि कार्माण और तेजस अनुभूत किये जाते हैं इसीलिए आत्माको कर्ता और भोक्ता शरीर मृत्यु के बाद प्रात्माके साथ साथ दूसरे शरीरों में भी कहा गया है। शरीर को तो कर्मोंका आधार माना प्रास्माको ले जाते हैं। यह कर्माण शरीर ही किसी भी है। अनुभूति या अनुभव करने वाला तो प्रात्मा है। मन जीवधारीके जन्म, जीवन और मरणका आधार या कारण मस्तिष्क और हृदय इत्यादि भी शरीरके ही भा। हैं और है। दश प्राणों के द्वारा यह शरीरमें स्थिर रहता है। जब पुद्गलकृत (Made of Matter) हैं तथा अनुभूतियोंइन प्राणोंका घात या क्षय होता है तो कर्माण शरीर आत्मा को अधिक साफ और उनका विधिवत् व्योरेवार विशेष के साथ निकल जाता है, जिसे मृत्यु कहा जाता है। ज्ञान कराने में सहायक कारण है । ये मस्तिष्क वगैरह भी बाहरी शरीरमें भी और कार्माण शरीरमें भी सर्वदा आत्मा या प्रास्माकी चेतनाकी मौजूदगीमें ही कार्यशील परिवर्तन हा करता है। यह परिवर्तन ही जीवनको चालू रहते हैं-अन्यथा नहीं । बीजाणु (Spermetazoon) रखता है या यों भी कह सकते हैं कि जीवन जब तक में पहले जीव (आत्मा) का आगमन होता है फिर धोरे २ रहता है परिवर्तन होता रहता है । परिवर्तन होते रहना शरीर, मस्तिष्क. मन इत्यादिका निर्माण होता है । इससे ही जीवन है। जबतक बाहरी शरीर और कार्माण शरीरों यह निश्चित है कि जीवधारीकी चेतना या ज्ञानके मूल का परिवर्तन सह-समान एक दूसरेके अनुकूल और साथ कारण या स्रोत मस्तिष्क, मन इत्यादि नहीं हैं-ये केवल साथ होता है जीवन रहता है । जब दोनोंमें भेद होता है प्राधार या सहायक मात्र हैं। बहुतसे जीवोंको मन और तो बीमारी और मृत्यु हो जाती है। हमारे कर्मों और मस्तिष्क इत्यादि होते ही नहीं, फिर भी उनमें जीवन और भावनाओंके अनुसार ही हमारे कार्माण शरीरमें तबदी चेतना रहती है। जीवन और चेतना प्रात्माके ही लक्षण लियाँ होती रहती हैं। कर्माण शरीर ही हमारे कर्मोको हैं और हो सकते हैं। कराने और भाग्यको निश्चित करने वाला है। हम पाते हैं प्रास्माका होना केवल तर्क-द्वारा ही सिद्ध होता है, कि हर पशु पक्षी, कीड़ा मकोड़ा जन्म होमेके बाद ही क्योंकि इसे हम देख नहीं सकते न इन्द्रियों द्वारा अनुभव Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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