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अनेकान्त
[किरण ४
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या करना आसान काम नहीं। यदि प्रारम्भमें सफलता न अनुसार ही हो सकती हैं। शारीरिक शक्तियोंका विकाश मिले तो उससे निराश होनेकी जरूरत नहीं। चेष्टा अभ्यास और उपयुक्त आचार-व्यवहारादिसे बढ़ता है। सतत जारी रखना ही बांछनीय है। यही सारी सफलताओं- रोग शक्तियोंका हास भी करता है। जप, तप, ध्यान, की कुंजी हैं । ब्रह्मचर्य श्रादि गुण भी साधना की पूर्णता धर्म ज्ञानकी वृद्धि इत्यादि सभी कुछ शरीर द्वारा ही होते और पूर्ण सफलताके लिए आवश्यक हैं। वर्तमान कालमें हैं । बगेर उपयुक्त और सुयोग्य शरीरके कुछ भी ब्रह्मचर्य और संयम आदि की बड़ी कमी है इस कारण सम्भव नहीं है। आत्म-साधन भी शरीरके माध्यमसे नब लोग सफल नहीं होते तो अपना दोष न देखते हुए ही सम्भव है, इसलिए शरीरको स्वस्थ और साधनके और उस कमीको दूर न करते हुए प्रात्मा और प्रात्म- योग्य बनाए रखना हमारा कर्तव्य है । शरीरको नष्ट शक्तियोंमें ही अविश्वास करने लगते है। यह गलती हैं। करने या कमजोर करने या अंग-भंग करनेसे सिवा इसका सुधार आवश्यक है। प्रात्मा की शक्तियोंमें हानिके लाभ नहीं है। विश्वास होनेसे ही व्यकि अपनेमें विश्वास रखता है
जैसे तरह तरहके बिजनीके यन्त्र और मशीन तरह और दृढतासे कार्य करते हुए सफल और उन्नत भी हो
तरहके कार्य केवल बनावटों की विभिन्नताके कारण ही सकता है।
करते हैं-यद्यपि विद्य तशक्ति उनमें एक ही या एक एक व्यक्ति जो अपनेको किसी पर्वतकी ऊँची चोटी
समान ही होती है। उसी तरह प्रारमा सभी शरीरोंमें पर चढ़ सकने योग्य नहीं समझता वह चढ़नेकी चेहरा ही
समान गुण वाला होता हुआ भी विभिन्न शरीरों या शरीर . नहीं करेगा, चढ़ना तो दूर ही रहा। दूसरा जो अपनेको
धारियोंके कर्म या कार्य उन शरीरोंकी बनावटोंके अनुसार इस योग्य समझता है प्रयत्न करेगा और चढ़ जायगा।X ही होते हैं। पर ये कार्य भी जब तक आत्मा उन शरीरोंइसी तरह आत्मा की अनंत शक्तियोंमें विश्वास करने
स करने में (बिजलीके यन्त्रोंमें बिजलीकी शक्तिके समान) वर्तमान वाला अपनी शक्तियोंको उत्तरोत्तर बढ़ाने में प्रयत्नशील
शान रहता है तभी तक होते हैं-आत्माके निकलते ही सारे भी होगा और बढ़ा भी सकेगा। भास्मा को परमशुद कार्य बन्द हो जाते हैं। किसी जीवधारीके शरीरमें और समझकर ही पूर्ण विश्वासके साथ उपयुक्त चेष्टा और
किसी विद्य त यन्त्रमें यह भेद है कि यन्त्र जड है और कोशिशसे परमशुद्धता भी प्राप्त हो सकती है। जिस
जीवधारी चेतनामय है, विद्यु त शक्ति भी स्वयं पुद्गल व्यक्तिका ध्येय दसमील तक ही जानेका होगा वह आगे
( Matter या जड) निर्मित है जब कि प्रारमशक्ति नहीं जायगा पर जिसका ध्येय सौ मील जानेका होगा
ज्ञान-चेतना-मय है। यन्त्रोंमें बिजली यन्त्रोंका निर्माण वह दसमील तो जायगा ही और आगे भी जायगा। उच्च
होने पर बाहरसे प्रवाह की जाती है जब कि शरीरधारियों ध्येय रखना ही उच्चताको पहुँचा सकता है। हां, आत्मा
का शरीर आत्माके साथ ही उत्पन्न होता और बढ़ता हैकी अनन्त शक्तियां शरीरकी सीमित शक्तियोंके कारण
इसीसे बिजलीको हम देखते और मानते हैं पर आत्माही सीमित हैं इससे पूर्णता एकाएक नहीं प्राप्त हो
को नहीं देख पाते-केवल ज्ञान-चेतना होनेसे ही ऐसा सकती । केवल यही समझकर कि पारमा अनन्त शक्ति
मानते है कि आत्मा है। बिजलीका प्रवाह यन्त्रोंमें विद्यमान है, इसीलिए यह समझना और मान लेना कि मनुष्य
मान रहने पर जैसे यन्त्र अपने आप कार्य करते हैं पर भी अनन्त शक्ति वाला है और वैसा व्यवहार करने
कहा जाता है कि विद्य त-शक्ति सारे काम कर रही है लगना मूर्खता, भ्रम और पागलपन कहा जायगा । मनुष्य
उसी तरह प्रात्माके शरीरमें विद्यमान रहने पर आरमाको की शक्तियों ( या किसी भी जीवधारी शरीर-धारीकी
कर्ता कहते हैं। पर विजलीकी मशीन ही काय' करती हैं, शक्तियां) उसके शरीरको बनावट, गठन और योग्यताके ।
बगैर यन्त्रोंके बिजलीसे स्वयं कोई कार्य होना संभव हालमें ही संसारकी सबसे ऊंची पर्वत चोटी इव- नहीं था-उसी तरह जीवधारियोंके शरीर ही कार्य करते रेस्ट पर चढ़ने वालोंके विवरण अखवारीमें निकल रहे हैं बगैर शरीरके आत्मासे भी कुछ होना संभव नहीं है-अपने को उस कार्यके योग्य समझकर चेष्टा करनेसे ही था। मानवका शरीर मानवोचित कर्म करता है, घ.देका ये खोग अन्तमें सफल दुए हैं।
शरीर घोड़ेके कर्म, किसी पक्षीका शरीर उस पलीके
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