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किरण ४]
को इसी ढंगसे लिखने में सफल हुए है, यह बात निर्विवाद कही जा सकती है।
संयम धर्म
उपसंहार
बड़े बड़े विद्वानोंके सामने विश्व स्वयं एक पहेली बन कर खड़ा हुआ है । संसारकी दुःखपूर्ण अजीब अजीब घटना -
उद्विग्न मनीषु लोगोंके सामने श्रात्मकल्याणकी भी एक समस्या है । इसके अतिरिक्त मानवमात्रकी जीवन-समस्या तो, जिसका हल होना पहले और
संयम धर्म
( श्री राजकृष्ण जैन ) दश धर्मोमें संयमका छठा स्थान है । इसलिए जब मनुष्य उत्तमक्षमा, मादव, आर्जव, शौच और सत्य गुणों से विभूषित होता है, तब वह ठीक अर्थ में संयम ग्रहण करनेका पात्र होता हैं | सं- सम्यक् प्रकार से यम ( जीवन पर्यंत चारित्र) ग्रहण करनेको संयम कहते हैं। इससे कोरे ase चारित्रका निराकरण हो जाता है ।
पूज्यपादाचार्यने ‘समितिषु प्रवर्तमानस्य प्राणेन्द्रिय परिहारः' यह संयमका लक्षण बतलाया है । यही बात पद्मनन्द श्राचार्य के निम्न श्लोकसे विदित है:जन्तु कृपादित मनसः समितषु साधोः पूर्वर्तमानस्य । प्राणेन्द्रिपरिहारः संयममाहु महामुनयः ॥
इसमें पूर्ण हिंसाका त्याग है, क्योंकि पूर्ण दयालुता वीतराग दशामें ७ वें अप्रमत्त गुणस्थानमें ही होती है । किन्तु जब सम्पूर्ण वीतरागता न हो तब रागकी वृत्तिके लिए पांच व्रतोंका धारण करना, पांच समितियोंका पाजन करना, क्रोधादि कषायोंका निग्रह करना, मनवचन-कायरूप तीन दण्डोंका त्याग करना और पांच इन्द्रियोंके विषयोंको जीतना संयम है । येह दो प्रकारका है प्राणसंयम और इन्द्रिय संयम । साधु ( मुनि ) दोनों प्रकारके संयमको पूर्ण पालता है, वह अपने आचरण में प्रयत्न करता है कि पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पतिकाय जैसे स्थावर जीवोंकी भी रक्षा हो । गृहस्थ, प्राण संयम में, त्रस जीवोंके विघातको स्वागता है और स्थावर जीवोंकी भी यथासाध्य रक्षा
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अत्यन्त आवश्यक है, बढ़ा विकराल रूप धारण किये हुए है। इन सब समस्याओंको सुलझानेमें जैन संस्कृति पूर्णरूपसे सक्षम है । तत्वार्थसूत्र-जैसे महान ग्रन्थोंका योग सौभाग्यसे हमें मिला हुआ है और इन ग्रन्थोंका पठनपाठन भी हम लोग सतत किया करते हैं; परन्तु हमारी ज्ञानवृद्धि और हमारा जीवनविकास नहीं हो रहा है यह बात हमारे लिये गम्भीरता पूर्वक सोचनेकी है। यदि हमारे विद्वानोंका ध्यान इस घोर जावे तो इन सब समस्याओंका हल हो जाना असम्भव बात नहीं दें
करता है। गृहस्थ के लिये देवपूजा, गुरुउपासना, स्वाध्याय संयम, तप और दान ये छः श्रावश्यक बतलाये है, इनमें संयमको इसलिए गर्भित किया गया है कि संयम अर्थात् इन्द्रियनिग्रहके बिना उसका जीवन व्यवस्थित या Controlled life नहीं होती । यहीं से वह अपने सम्यक् श्रद्धा और ज्ञानको अाचरणके रूपमें उपयोग करता है और यहींसे वह दशा प्रारम्भ होती है जो संसारकी निवृत्ति अर्थात् मोक्ष के लिए आवश्यक है ।
तत्वार्थ सूत्र में 'प्रमत्त योगात्प्राणव्यरोपणं' यह हिंसाका लक्षण बतलाया है । जब मनुष्य पांच इन्द्रिय, चार कषाय चार विकथा, राग-द्वेष और निद्रा, १५ प्रकारके प्रमाद इन पर नियंत्रण करके प्रवृत्ति करता है, तब वह हिंसाका त्यागी होता है। प्रसादकी उपस्थितिमें सर्वप्रथम भावहिंसा के द्वारा अपने आत्मपरिणामोंका घात करता है और अपने समत्व (Equilibrium) को खो बैठता है। इसमें यह आवश्यक नहीं कि अन्य प्राणी मरें या जीवें, वह हिंसक कहलायेगा । पुरुषार्थसिद्धयुपायके निम्न दो श्लोक इस विषय में बड़े महत्व के हैं:
व्युत्थानावस्थायां रागादीनां वशप्रवृत्तायां । म्रियतां जीवो मारवा धावत्य ध्रुव हिंसा ॥ यस्मात्कषायः सन् हन्त्यात्मा प्रथममात्मनात्मानं । पश्चात् जायेत न वा हिंसा प्राण्यन्तराणांतु ॥
हिंसक और अहिंसककी व्याख्या निम्न उदाहरणसे स्पष्ट हो जाती है । कभी कभी देखा जाता है कि मारने
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