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अनेकान्त
[किरण ४
वस्तुके अस्तित्वकी ओर दृष्टि डालते हैं तो उसका वह करणानुयोग और भौतिकवादको द्रव्यानुयोग नामोंसे अस्तित्व किसी न किसी प्राकृतिके रूप में ही हमें देखनेको पुकाग गया है। मिलता है । जैन संस्कृतिमें वस्तुकी यह प्राकृति ही द्रव्य- इस प्रकार समूचा तत्वार्थसूत्र आध्यात्मिक दृष्टिसे पद-वाच्य है इस तरहसे विश्वमें जितनी अलग अलग लिखा जानेके कारण आध्यात्मिक या करणानुयोगका न्य प्राकृतियां हैं उतने ही द्रव्य समझना चाहिये, जैन होते हुए भी उसके भिन्न भिन्न अध्याय या प्रकरण संस्कृतिके अनुसार विश्वमें अनन्तानन्त प्राकृतियां विद्यमान मौतिक अर्थात् द्रव्यानुयोग और चारित्रिक अर्थात् चरणा
व्य भी अनन्तानन्त ही सिद्ध हो जाते हैं परन्तु नुयोगकी छाप अपने ऊपर लगाये हुए हैं, जैसे पांचवे इन सभी द्रव्योंको अपनी अपनी प्रकृतियों अर्थात् गुणों अध्याय पर द्रव्यानुयोगकी और सातवें तया नवम
और परिणमनों अर्थात् पर्यायोंकी समानता और अध्यायों पर चरणानुयोग की छाप लगी हुई है। विषमताके आधार पर छह वर्गों में संकलित कर दिया गया है अर्थात् चेतनागुणविशिष्ट अनन्तानन्त श्राकृतियों
___तत्त्वार्थसूत्रके प्रतिपाद्य विषय को जीवनामक वर्गमें, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श गुण
"तत्वार्थ सूत्र में जिन महत्वपूर्ण विषयों पर प्रकाश विशिष्ट अणु और स्कन्धके भेदरूप अनन्तानन्त प्राकृ- डाला गया है वे निम्नलिखित हो सकते हैं - तियोंको पुद्गल-नामक वर्गमें, वर्तना लक्षण विशिष्ट 'सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र तथा असंख्यात प्राकृतियों को काल-नामक वर्गमें, जीवों और इनकी मोक्ष मार्गता, तत्वोंका स्वरूप, वे जीवादि सात पुद्गलोंकी क्रियामें सहायक होने वाली एक प्राकृतिको धर्म ही क्यों ? प्रमाण और नय तथा इनके भेद, नाम, नामक वर्ग में, उन्हीं जीवों और पुद्गलोंके ठहरने में सहायक स्थापना, दव्य और भाव तथा द्रव्य, क्षेत्र, काल और होगे वाली एक प्राकृति को अधर्म-नामक वर्गमें तथा भाव, जीवकी स्वाधीन और पराधीन अवस्थायें, विश्वके समस्त द्रव्योंके अवगाहनमें सहायक होने वाली एक समस्त पदार्थोंका छह द्रव्योंमें समावेश, द्रव्योंकी संख्या श्राकृति को प्राकाश-नामक वर्गमें संकलित किया गया है। छह ही क्यों ! प्रत्येक द्रव्यका वैज्ञानिक स्वरूप, धर्म यही सबब है कि द्रव्योंकी संख्या जैन संस्कृतिमें छह और अधर्म द्रव्योंकी मान्यता, धर्म और अधर्म ये दोनों ही निर्धारिन करदी गई है।
द्रव्य एक एक क्यों ? तथा लोकाशके बराबर इनका इसी प्रकार प्रात्मकल्याणके लिये हमें उम्हीं बातों विस्तार क्यों ? श्राकाश द्रव्यका एकत्व और व्यापकत्व, की ओर ध्यान देनेकी आवश्यकता हैं जो कि इसमें काल द्रव्य की अणुरूपता और नामारूपता, जीवकी प्रयोजनभूत हो सकती हैं। जैन संस्कृति में इसी प्रयोजन- पराधीन और स्वाधीन अवस्थाओंके कारण, कर्म और भूत वातको ही तत्व नामसे पुकारा गया है, ये तत्व भी नोकर्म, मोक्ष प्रादि ।' पूर्वोक्त प्रकारसे सात ही होते हैं।
इन सब विषयों पर यदि इस लेखमें प्रकाश डाला इस कथनसे एक निष्कर्ष यह भी निकल पाता है जाय तो यह लेख एक महान ग्रन्थका श्राकार धारण कर कि जो लोग श्रात्मतत्वके विवेचन को अध्यात्मबाद और लेगा और तब वह अन्य तत्वार्थसूत्रके महत्त्वका प्रतिपादक श्रात्मासे भिन्न दूसरे अन्य तत्वोंके विवेचन को भौतिक- न होकर जैन संस्कृतिके ही महत्त्वका प्रतिपादक हो जायगा, वाद मान लेते हैं उनकी यह मान्यता गलत है क्योंकि इसलिए तत्त्वार्थसूत्र में निर्दिष्ट उक्त विषयों तथा साधारण उक्त प्रकारसे, जहां पर प्रात्माके केवल अस्तित्व, स्वरूप दूसरे विषयों पर इस लेख में प्रकाश नहीं डालते हुए इतना या भेद प्रभेदों का ही विवेचन किया जाता है वहां पर से ही कहना प्रर्याप्त है कि इस सूत्र ग्रन्थमें सम्पूर्ण जैन भी मौतिकवादमें ही गर्भित करना चाहिये और जहां पर संस्कृतिको सूत्रोंके रूपमें बहुत ही व्यवस्थित ढंगसे गूथ अनात्मतत्वोंका भी विवेचन प्रात्मकल्याणकी दृष्टिसे दिया गया है। सूत्र ग्रन्थ लिखनेका काम बड़ा ही कठिन किया जाता है वहां पर उसे भी अध्यात्मबादकी कोटि में है,क्योंकि उसमें एक तो संक्षेपसे सभी विषयोंका व्यवस्थित ही समझना चाहिये । यह बात तो हम पहिले डंगसे समावेश हो जाना चाहिए. दूसरे उसमें पुनरुक्तिका ही लिख पाये है कि जैन संस्कृति में अध्यात्मवाद को छोटेसे छोटा दोष नहीं होना चाहिये । ग्रन्थकार तत्वार्थसूत्र
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