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संस्कृतिको श्राध्यात्मिक माननेके लिये श्राधार है । यहाँ तक कि जितना भी भौतिक विकास है उसके अन्दर भी विकासकर्ताका उद्देश्य लोकजीवनको लाभ पहुँचाना ही रहता है अथवा रहना चाहिये अतः समस्त भौतिक विकास भी आध्यात्मिकता के दायरेसे पृथक नहीं है लेकिन ऐसी स्थिति में श्राप्यात्मिकता और भौतिकताके भेदको समकनेका एक ही आधार हो सकता है कि जिस कार्यके अन्दर आत्माके लोकके लाभकी दृष्टि अपनायी जाती है वह कार्य आध्यात्मिक और जिस कार्य में इस तरहके लाभकी दृष्टि नहीं अपनायी जाती है, या जो कार्य निरुद्दिष्ट किया जाता है वह भौतिक माना जायगा ।
अनेकान्त
[ किरण. ४
है जिसमें आत्मा या लोकके लाभालाभका कुछ भी ध्यान नहीं रखकर केवल वस्तुस्थिति पर ही ध्यान रखा। जाता है। इस विकल्पमें जहाँ तक वस्तुस्थितिका तालुक है उसमें विज्ञानका सहारा तो अपेक्षणीय है ही. परन्तु विज्ञान केवल वस्तुस्थिति पर तो प्रकाश डालता है उसका श्रात्मा या लोकके लाभालाभसे कोई सम्बन्ध नहीं रहता है तात्पर्य यह है कि विज्ञान केवल वस्तुके स्वरूप और विकाश पर ही नजर रखता है, भले ही उससे आत्माको
यद्यपि यह संभव है कि आत्मा या लोकके लाभकी दृष्टि रहते हुए भी कर्ता ज्ञानकी कमी के कारण उसके द्वारा किया गया कार्य उन्हें अलाभकर भी हो सकता है परन्तु इस तरहसे उसकी लाभ सम्बन्धी दृष्टिमें कोई अंतर नहीं होनेके कारण उसके उस कार्यकी प्राध्यात्मिकता
तुरण बनी रहती है अतः आत्मतत्वको नहीं स्वीकार करने वाली चार्वाक जैसी संस्कृतियोंको श्राध्यात्मिक संस्कृतियाँ मानना श्रयुक्त नहीं है ।
यह कथन तो मैंने एक दृष्टिसे किया है, इस विषय दूसरी दृष्टि यह है कि कुछ लोग आध्यात्मिकता और भौतिकता इन दोनोंके अन्तरका इस तरह प्रतिपादन करते है कि जो संस्कृति आत्मतत्वको स्वीकार करके उसके कल्याणका मार्ग बतलाती है वह आध्यात्मिक संस्कृति है और जिस संस्कृति में आत्मतत्वको ही नहीं स्वीकार किया गया है वह भौतिक संस्कृति है; इस तरह श्रात्मतत्वको मानकर उसके कल्याण का मार्ग बतलाने वाली जितनी संस्कृतियां है वे सब आध्यात्मिक और आत्मवस्यको नहीं मानने वाली जितनी संस्कृतियाँ हैं वे सब भौतिक सं कृ तियाँ ठहरती है। इस विचारधाराले भी मेरा कोई मतभेद नहीं है, कारण कि यह कथन केवल दृष्टिभेदका ही सूचक है आध्यात्मिकता और भौतिकता के मूल आधारमें इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता है ।
श्रध्यात्मिकता और भौतिकता के अन्तरको बतलाने वाला एक तीसरा विकल्प इस प्रकार है-एक ही संस्कृति - के आध्यात्मिक और भौतिक दोनों पहलु हो सकते हैं संस्कृतिका आध्यात्मिक पहलू वह है जो श्रात्मा या लोकके लाभालाभसे सम्बन्ध रखता है और भौतिक पहलू वह
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या लोकको लाभ पहुँचे या हानि पहुँचे । लेकिन आरम कल्याण या लोककल्याणकी दृष्टिसे किया गया प्रतिपादन या कार्य वास्तविक ही होगा, यह नियम नहीं है वह कदाचित् श्रवास्तविक भी हो सकता है, कारण कि श्रवास्तविक प्रतिपादन भी कदाचित किसी किसीके लिये लाभकर भी हो सकता है। जैसे सिनेमा के चित्रण, उपन्यास या गल्प वगैरह अवास्तविक होते हुए भी लोगोंकी चित्तवृत्ति पर असर तो डालते ही हैं। तात्पर्य यह है कि चित्रण आदि वास्तविक न होते हुए यदि उनसे अच्छा शिक्षण प्राप्त किया जा सकता है तो फिर उनकी अवास्तविकता का कोई महत्व नहीं रह जाता है। जैन संस्कृतिके स्तुतिग्रन्थोंमें जो कहीं कहीं ईश्वरकर्तृस्वकी झलक दिखाई देती है। वह इसी दृष्टिका परिणाम है जबकि विज्ञानकी कसोटी पर खरा न उतर सकने के कारण ईश्वरकतृ विवादका जैम दार्शनिक ग्रन्थोंमें जोरदार खण्डन मिलता है और इसी दृष्टिसे ही जैन संस्कृति में अज्ञानी और अल्पज्ञानी रहते हुए भी सम्यग्fष्टको ज्ञानी माना गया है; जबकि वास्त विकताके नाते जीव बारहवें गुणस्थान तक अज्ञानी या अल्पज्ञानी बना रहता है ।
इस विकल्प के आधार पर जैन संस्कृतिको दो भागोंमें विभक्त किया जा सकता है। एक आध्यात्मिक और दूसरा भौतिक । ।
जैन संस्कृतिके उक्त प्रकारसे आाध्य त्मिक और भौतिक ये दो भाग तो है ही परन्तु सभी संस्कृतियोंके समान इसका एक तीसरा भाग आाचार या कर्त्तव्य सम्बन्धी भी हैं इस तरह समूची जैन संस्कृतिको यदि विभक्त करना चाहें तो वह उक्त तीन भागों में विभक्त की जा सकती है । इनमें से आध्यात्मिक विषयका प्रतिपादक करणानुयोग. भौतिक विषयका प्रतिपादक द्रव्यानुयोग और आचार या कर्त्तव्य विषयका प्रतिपादक चरणानुयोग इस तरह तीनों
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