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अन्य कोई व्यक्तिगत स्वार्थ हो, देश-कालका विचार न हो वह त्याग धर्मकी कोटिमें नहीं श्राता । हमारा प्रत्येक त्याग धर्म की कोटिमें समाविष्ट हो इसके लिए हमें अपने पूरे विवेक का उपयोग करना चाहिए।
त्यानधर्म जैनाचार अथवा सदाचारकी एक बड़ी शाखा है । व्याग का अर्थ छोड़ना है । छोड़नेके भी दो रूप हैं । कोई चीज किसी को देकर भी छोड़ी जा सकती है और बिना दिये भी, किसीको कोई चीज देनेके लिए जब हम छोड़ते हैं तो वह त्याग दान कहलाता है जैसे आहारदान, औषधदान आदि। किन्तु दान शब्दका प्रयोग ज्ञान और जीवनके साथ भी होता है ज्ञानदान जीवनदान । कोई किसीको ज्ञान देता है तो इसका यह अर्थ नहीं है कि वह ज्ञान को इस तरह छोड़ देता है जैसे आहारदानके समय आहारको छोड़ दिया जाता है। ज्ञानको तो किसी भी तरह छोड़ना सम्भव नहीं है। जैसे एक दीपकसे दूसरा दीपक जला दिया जाता है इसी तरह एक आत्माके ज्ञानसे दूसरे आत्मामें ज्ञान उत्पन्न किया जाता है। अभय दानमें तो अपने पाससे सचमुच कुछ भी नहीं दिया जाता। उसमें तो केवल प्राथिरताका प्रयत्न ही किया जाता है उस प्रयत्नकी सफलता ही अभयदान है ।
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जो चीज किसीको किसी रूपमें बिना दिये दी जाती है वह भी त्यागका एक रूप है । जब मनुष्य कषाय अथवा बासनाओंका परित्याग करता है तो वह उत्कृष्ट कोटिका त्यागी कहलाता है। इस त्यागका दानके प्रकरण से कोई सम्बन्ध नहीं है। सम्पूर्ण बाह्य परिग्रहको छोड़कर जब कोई संसार- विरक्त होता है तब उसका वह बाह्य परिग्रह-स्याग किसीको देने के लिए नहीं होता, वह तो उसे हेय समझकर छोड़ता है। इस सारे विवेचनका यह अर्थ है कि व्याग शब्दका प्रयोग दानार्थमें भी होता है और इससे भिन्न अर्थमें भी ।
अनेकान्त
[ किरण ४
के रूप में परिवर्तित करनेके लिए दान-संस्थाका जन्म हुआ है और यह सन्न है कि इस संस्थाने दानार्थी और दानी सबका समान रूपसे उपकार किया है। अब तक दान धनिक समाजके लिए वरदान स्वरूप सिद्ध हुआ है। दानार्थियों में तब तक उत्पातकी भावना पैदा नहीं होती जब तक धनियोंके द्वारा दिये गये दानसे किसी न किसी रूपमें उनकी श्रावश्यकताएँ पूरी होती जाती हैं । दानी को अपने मनमें कभी यह अहंकार लाने की जरूरत नहीं है कि मैं दान देकर दुखी, दरिद्र और गरीबोंका भला करता हूँ बल्कि उसको यह सोचना चाहिए कि इनको दान देना ही मेरी रक्षाका कवच है ।
संग्रह से दोष पैदा होते हैं इसलिए सबसे अच्छी बात यह हैं कि संग्रह न किया जाय; पर मनुष्यकी यह प्रवृत्ति यों ही छूटनेवाली नहीं है इसलिए विवेक पूर्वक संग्रहके वितरकी व्यवस्था करना मनुष्यका अनिवार्य कर्तब्य है इस कंर्त्तव्यका जो पालन नहीं करता वह मानव-समाजमें अशान्ति उत्पन्न करनेके दोपका हिस्सेदार है। अतिसंग्रह से जो विषमता आती है उस विषमताको आंशिक समता
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विश्व प्रकृति स्वयं संग्रह अथवा अतिसंग्रहके विरुद्ध
समुद्र, मेष, वृक्ष और स्वयं पृथ्वी संग्रहके विरुद्ध क्रान्ति पैदा कर देते हैं और दानकी महत्ता को प्रकट कर ते हैं । दानके विषय में एक कविने कितना अच्छा कहा है
है
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ऋतु वयन्त जाचक भयो एप दिये तुम पात
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तामें नव पल्लव भये, दियो दूर नहीं बात ||
वसन्त ऋतु आई, उसने आकर वृक्षों से कहा- मैं तुम्हारी याचक हूँ. मुझे दान दो, वृक्ष यह सुनकर बड़े खुश हुए और अपने सारे पत्ते ऋतुको दान स्वरूप दे दिये । वृक्षोंका यह दान निष्फल नहीं गया; क्योंकि तत्काल ही उन पत्तांके स्थान में नये पत्ते श्रा गए । यह सच है कि दिया हुआ कभी व्यर्थ नहीं होता ।
किन्तु यह बात भी भूलने की नहीं है कि कोई भी मनुष्य कुछ न कुछ तो दान देने को क्षमता रखता ही है। एक करोड़ रुपयेका दान और एक पैसेका दान दोनों ही दानकी कोटि में आते हैं और क्षमताकी दृष्टिसे दोनों का बराबर मय है। यदि भावोंमें विषमता न हो तो दोनों का समानफल भी हो सकता है। जब यह बात है तब स्पष्ट है कि दानी केवल धनी ही नहीं बन सकता निर्धन भी बन सकता है। इसलिए पनियोंकी तरह निर्धन भी अपनी शक्तिका विना छिपाये और शक्तिका अतिक्रमण किये बिना स्याग धर्मकी और अच्छी तरह प्रवृत हो सकते हैं। जब मनुष्य के मन में ठीक अर्थसहानुभूतिके भाव उत्पन्न होते हैं तब उसमें दयाकी वृत्ति जागृत होती है और तभी वह देने को प्ररेणा भी पाता है। महान् विचारक श्री विनोबा भावे के शब्दोंमें देनेकी प्ररेणाको ही दया
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