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क्योंकि इच्छा ही दुःख है, इच्छा ही परिग्रह है, मोह और श्रज्ञानका परिणाम है। जिसके जितनी अधिक इच्छाएँ हैं वह उतना ही अधिक परिग्रही अथवा मोही है, और अनन्त दुखोंका पात्र है । यह श्रज्ञ प्राणी बाह्य इच्छापूर्ति मात्रको सुख समझता है इसीसे रातदिन उन्हीं की पूर्ति में लगा रहता है, और उसके लिए अनेक प्रयत्न करता है । चोरी, दगाबाजी, विश्वासघात, और छल-कपट आदि अनेक दूषित वृत्तियोंके द्वारा इच्छाकी पूर्ति के लिये दौड़ धूप करता रहता है । उसीके लिये समुद्रों और पर्वत तथा कन्दराओं की सैर करता है, अनेक कष्ट भोगता है और कार्य सिद्धिके अभाव में विकल हुआ मानसिक सन्तापसे उत्पीड़ित रहता है हजारपति से लेकर लखपति या करोड़ पति अथवा अरबपति बन जाने पर भी सुखी नहीं देखा जाता वह दुःखी ही पाया जाता है। आचार्य गुणभद्रने कहा है कि—
आशागर्तः प्रतित्राणि यस्मिन्विश्वमणूक्ष्मम् । किं कदा कियदायाति वृथा या विषयैषिता । 'इस जीवका श्राशारूपी खाड़ा इतना गहरा है कि उसमें विश्वकी समस्त सम्पदा श्रणुके समान है। तत्र किसके हिस्से में कितनी श्रावेगी ? श्रतः इस विषयेषणाको धिक्कार है ।"
जिस तरह सहस्त्रों नदियोंके जलसे समुद्रकी तृप्ति नहीं होती उसी तरह पंचेन्द्रियोंके विषयोंका अनादिकाल से सेवन करते भी जीवकी तृप्ति नहीं होती । भोग उपहुए भोगकी आकांक्षाएँ संसारवृद्धिकी कारण हैं उनसे तापकी शान्ति नहीं हो सकती। उनसे उल्टी तृष्णाकी अभिवृद्धि ही होती है । श्रतएव हमें चाहिये कि कर्मोदय से प्राप्त भोग उपभोगकी सामग्री में सन्तोष रखते हुए अपनी इच्छाओं की प्रवृत्तिको सीमित बनानेका यत्न करें । यम और नियमका सावधानी से पालन करें, क्योंकि ये दोनों ही गुण इच्छा निरोधमें कारण हैं। जीवन में यम और नियम रूप प्रवृत्तिसे संयमका वह छिपा हुआ रूप सामने ता है, और फिर लोकमें अशान्तिकी वह भीषण बाधा भी दूर होने लगती है ।
ऊपर बतलाया गया है कि इच्छाओंका निरोध तपसे होता है । वह तप दो प्रकारका है । बाह्य और अन्तरंग | दोनों ही तप अपने छह छह भेदोंको लिये हुए हैं - इस तरह तपके कुल बारह भेद हैं, अनशन, ऊनोदर, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्त शय्यासन और काय
अनेकान्त
[ किरण ४
क्लेश, प्रायश्चित, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सगं और ध्यान । इनमेंसे आदिके छह तप बाह्य हैं, इनका आवरण बाह्य जीवनमें दिखता है इसीसे इन्हें बाह्य कोटि में रखा गया है। इनका साधन श्रन्तस्तपकी वृद्धि के लिये किया जाता है । परन्तु अन्तस्तप श्रात्मासाधना में विशेष उपयोगी हैं। उन्हींसे कर्मशृंखलाका जाल कटता है । इन अन्तरंग तपोंमें स्वाध्याय और ध्यान ये दोनों ही तप मुमुक्षु योगी के लिये विशेष महत्वके हैं। योगीको ध्यान एवं स्वाध्याय से उस आत्मबलकी प्राप्ति होती है जो कर्मकी क्षपणा अथवा क्षय करनेकी सामर्थ्य को लिये हुए है । यही कारण है कि जब योगी श्रात्म-समाधिमें स्थित हो जाता है तब उसके बाह्म और श्राभ्यन्तर इच्छाओंका पूर्णतया निरोध हो जाता है । इच्छाओं के निरोध होनेसे तज्जन्य संकल्प - विकल्पोंका भी अभाव हो जाता है । और आत्मा अपने सम्यग्दर्शनज्ञानचरित्रादि गुणोंमें एकनिष्ठ होते ही मोहकर्मकी उस सुदृढ़ सांकलको खंडित कर देता है जिसके टूटते ही कर्मोंके सभी बन्धन शक्त बन जाते हैं - फलदान की सामर्थ्य से रिक्त हो जाते हैं । और श्रात्मा क्षणमात्रमें उनके भारसे मुक्त होकर अपनी अक्षय सम्पदा का स्वामी बन जाता है । तपकी 'अपूर्व सामर्थ्य है जो जीवको दुःखपरम्परासे छुड़ाकर त्रैलोक्य के जीवोंके द्वारा अभिवंद्य एवं उपास्य बना देती है ।
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" श्रतः हम सबका कर्त्तव्य है कि हम भी अपने जीवनको संयत बनाने का यत्न करें। अपनी इच्छाओं को सीमित कर स्वस्थ, सुखी बनें और आत्मबलको उन्नत करें, तथा दुःखांसे छूटनेका प्रयत्न करें। श्राज हम लोग असीमित इक्छाओंके कारण अर्थसंचय और विविध भोगोंके उपभोगकी लालसा में लगे हुए हैं। अपनी स्वार्थपरता से एक दूसरेका बुरा सोचते हैं, दूसरोंकी सम्पत्ति और उनके भोगोंको प्रवृत्तिले असन्तोष एवं डाह करते हैं। स्वयं परिग्रहका संचय करते हैं, श्रसत्य बोलते हैं, दूसरेकी चुगली करते हैं, और अपने असहिष्णु व्यवहार से अपनी श्रात्मवंचना करते हुए जगतको ठगने अथवा धोखा देनेका यत्न करते हैं, यह कितनी अज्ञानता है। अतः हमें चाहिए कि हम भी अपनी इच्छाओं पर नियन्त्रण कर तपकी महत्ताका मूल्यांकन करते हुए सन्तोषी, सुखी बनें, तथा एक देश तपस्वी बन कर अपना हित साधन करें ।
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