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अनेकान्त
[किरण ४
की भावनासे दिया गया विष भी किसी मनुष्यको अमृतका वचनकी शुद्धता भाषासमिति है, भोजनकी शुद्धता काम करता है और डाक्टर किसी मनुष्यकी जान बचानेके एषणासमिति है, देखकर उठाने और धरनेकी शुद्धता लिये आपरेशन करता है और मनुष्य मर जाता है। चाहे आदान-निक्षेपणासमिति है, स्वच्छ निर्जन्तु स्थान पर मृत्यु हो या न हो मारनेकी भावनासे विष देने वाला मलमूत्र विसर्जन करना प्रतिष्ठापनासमिति है। हिंसक है और आपरेशन करनेवाला डाक्टर अहिंसक ।
संयमकी महत्ता पर श्रीपद्मनन्दिप्राचार्यका निम्न मन, त्वचा, जिह्वा नासिका, नेत्र और कान इन पर कंट्रोल करना यही इन्द्रिय-संयम है। कौन नहीं जानता कि श्लोक महत्वपूर्ण हैइन्द्रियोंसे उत्पन्न हुए सुख सुखाभास है, विनाशक है मानुष्यं किल दुर्लभं भवभृतस्तत्रापि जात्यादयः, और कर्मोके श्राधीन है । स्पर्शन इन्द्रियका विषय कामांध
तेष्वेवाप्तवचः श्रतिः स्थितिरतस्तस्याश्च दृग्बोधने । हाथीको फंसा देता है, जिह्वा इन्द्रियके कारण मछली कांटे
प्राप्ते ते अपि निर्मले अपि परं स्यातां न येनोज्झिते, में फंसकर अपने प्राण गँवा देती है । नासिका इन्द्रियके कारण कमलके परागमें उसकी सुगन्ध सूंघता सूंघता स्वर्मोक्ष कफलप्रदः स च कथं न श्लाध्यते संयमः ॥ भंवरा अपनी जान देता है। नेत्र इन्द्रियके वशीभूत इसमें बतलाया है कि संसाररूपी गहन बनमें होकर पतंग दीपक या बिजलीकी लौमें स्वाहा हो भ्रमण करते हुए जीवको मनुष्यजन्म महादुर्लभ' है। जाता है। कर्णेन्द्रिय के वशीभूत चपल मृग भी राग मनुष्य पर्यायमें भी उत्तम जातिका मिलना कठिन सुननेके कारण शिकारीके द्वारा दारुण कष्टको भोगता है। है। यदि उत्तम जाति भी मिले तो भगवानके वचन जब एक एक इन्द्रियके विषयके कारण जीव नानाप्रकारके सुननेका सुयोग दुर्लभ है । यदि भगवद्-वचन भी दुःखोंको भोगता है तो मनुष्य पांचों इन्द्रियके विषयमें सुना तो उन वचनोंमें श्रद्धा लाना और ज्ञानसे उसका फंसकर क्या क्या कष्ट सहन नहीं करता ? इन्द्रियोंकी निर्णय करना कठिन है। यदि ये सब बातें हों तो भी
ल प्रवत्तिको रोकना ही संयम है। गृहस्थके संयमके बिना न स्वर्ग मिल सकता है और न मोक्ष । लिए भी यथासाध्य समितियोंका पालन नित्यके व्यवहारके यह जानकर मनुष्यको यथाशक्ति संयम अवश्य धारण लिए आवश्यक है। गमनकी शुद्धता ईर्या समिति है, करना चाहिए ।
प्राचिन्य धर्म
(परमानन्द शास्त्री) . ममेदमित्युपात्तेषु शरीरादिषु केषुचित् । भावनासे श्रोत प्रोत है, यदि उसमें से धनकी ममताका अभिसन्धिनिवृत्तिर्या तदाकिंचन्यमुच्यते ।। सर्वथा अभाव हो जाता है तब उसे भी प्राकिचन्य
धर्मका धारी माना जा सकता है अन्यथा नहीं। प्राकिं- संसारमें ऐहिक पदार्थों में और अपने शरीरादिकमें भी
चन्य धर्मका धारी धनी, निर्धनी, दुखी, सुखी आदि ममताका अभाव होना प्राकिंचन्य है। अकिंचन्यका
सभी व्यक्तियों पर समानभाव रहता है । वह लोकमें अर्थ होता है नग्नता। केवल बाह्य नग्नता आकिंचन्य
किसोको भी दुखी नहीं देखना चाहता महीं है, किन्तु अंतर्बाह्य परिग्रहसे ममत्वका अभाव होना आकिंचम्य है, लोकमें जिसके पास कुछ भी नहीं है,
आज लोकमें परिग्रहकी आसक्ति, अर्थसंचयकी लोलुजिसका तन नंगा है और मन भी नंगा है, जिसे पता और विविधि भोगोंके भोगनेकी लालसाने मानवअपने शरीरका भी लेशमात्र मोह नहीं है, वही वास्तवमें जीवनके नैतिक स्तरको भी नीचे गिरा दिया है। परिग्रहअकिंचन है। केवल निधन होना अकिंचन नहीं कहा की अनन्ततृष्णा मानवताके रहस्यको खोखला कर रही जा सकता, क्योंकि धनाभाव, धनागमकी आकांक्षारूप है। लोय परिग्रहको ही आज सब कुछ अपना माने बैठे
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