Book Title: Anekant 1953 09
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jugalkishor Mukhtar

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Page 22
________________ सत्य धम गणेशप्रसादजी वर्णी ) वह चौथे प्रकारका असत्य है | जुगलखोरी तथा हास्यसे मिश्रित जो कठोर वचन है वह गर्हित कहलाते हैं। बाजे बाज़े आदमी अपनी पिशुन वृत्तिसे संसार में कलह उत्पन्न करा देते हैं। कहो, मूलमें बात कुछ भी न हो परन्तु चुगलखोर इधर उधरकी लगाकर बातको इतना बढ़ा देते हैं कि कुछ कहा नहीं जा सकता। पं० बजदेवदासज एक बड़ी अच्छी बात थी । वह आप सबको भी मान्य होगी। उनके समय कोई जाकर यदि कहता कि अमुक श्रादमी आपकी इस तरह निन्दा करता था. वे फौरन टोक देते थे भाई वह बुराई करता हो इसका तो विश्वास नहीं, पर आप हमारे ही मुँह पर बुराई कर रहे होंगालियाँ दे रहे हों। मुझे सुननेके लिये अवकाश नहीं मैं तो तब मानूंगा जब वह स्वयं आकर हमारे सामने ऐसी बात करेगा और तभी देखा सुना जायेगा। यदि ऐसा अभिप्राय सब बोग करखें तो तमाम दुनियाके टटे टूट जाय। ये चुगल जिस प्रकार आपकी बुराई सुनाने आते हैं वैसी आपकी प्रशंसा नहीं सुनाते । दूसरे के मर्मको छेदने वाले हो जाते है अरे, ऐसी हंसी । क्या कामकी जिसमें तुम्हारा को विनोद हो और दूसरा मातक पीड़ा पावे । कोई कोई लोग इतने कठोर वचन बोलते हैं—इतना रूखापन दिखलाते हैं जिससे कि समभावीका धैर्य भो टूटने लग जाता है कितने ही असम्बद्ध श्रौर अनावश्यक बोलते हैं। उनका यह चतुर्थ प्रकारका असत्य है | ये चारों ही असत्य प्राणीमात्रके दुःखके कारण हैं । यदि सत्य बोला जाय तो उससे अपनी हानि ही कौनसी होती है सो समझमें नहीं श्राता । त्य वचनसे दूसरोंके प्राणोंकी रक्षा होती हैं, अपने आपको सुखका अनुभव होता है। हमारे गाँवकी बात है। मंडावरे में मैं रहता था मेरा एक मित्र था हरिसिह । हम दोनों साथपड़ते थे बड़ी मित्रता थी। इसके पिताका नाम मौजीखाल था और काकाका माम कुंजीलाल दोनोंमें न्वारपन हुआ तो कुंजीलालको कुछ कम हिस्सा मिला जिससे यह निरन्तर लड़ता रहता था। एक दिन भौजी लाजने मौजीलालने कुंजीलालको खूब मारा और अन्त में अपना अंगूठा अपने ही दाँतों से काट कर पुलिस में रिपोर्ट कर दी, उल्टा कुजीबाल पर मुकदमा चछा दिय हमारा मित्र हरिसिंह हमसे बोला कि तुम अदालत में कह देना कि मैं लुहर्रा गाँव में अपने चाचाके यहाँ जा रहा था बीचमे मैंने देखा कि कुंजवाल और मौजीलाल में खूब बगड़ा हो रहा था तथा कुंजीखाल मोजोलालका अंगूठा दाँतोंसे दबाए हुए था । मैंने बहुत मना किया पर वह न माना । मित्रका आग्रह देखकर मुझे अदालत में जाना पड़ा, जब मेरा नम्बर श्राया और अदालत ने मुझसे पूछा कि क्या जानते हो मैंने कह दिया कि मैं अपने चाचाके यहाँ लुहर्रा जा रहा था रास्तेमें इनका घर पड़ता था मैंने देखा कि कुंजीलाल और मौजीलालमें खूब लड़ाई हो रही थी और कुजीलाल मौजीलालका अंगूठा दाँतोंसे दबाये हुए था। अदालत ने पूछा और क्या जानते हो ? मैने कहा और यह जानता हूँ कि हरिसिंहने कहा था कि ऐसा कह देना । अदालतको बात जम गई कि यह मौजीलाल ने झूठा मामला खड़ा किया है इसलिये उसी वक्त खारिज कर कितने ही आदमी हँसी में ऐसे शब्द कद देते हैं जो दिया और मौजीजाजको जो दिना उसने ज्यादा रख ❤ (श्री १०१ पूज्य पृष्ठ आज सत्यधर्म है सत्यसे आत्माका कल्याण होता है। इसका स्वरूप अमृतचन्द्राचार्यने इस प्रकार कहा है कियदि प्रमादयोगासमधानं विधीयते किमपि । तदेनृतमपि विज्ञेयं तद्-भेदाः सन्ति चत्वारः ॥ ११ प्रमादके वश जो कुछ श्रन्यथा कहा जाता है उसे असत्य जानना चाहिये । उसके चार भेद हैं यहाँ श्राचार्यने प्रमादयोग विशेषण दिया है, प्रसादका अर्थ होता है कषायका तीव्र उदय, कषायसे जो झूठ बोला जाता है वह अत्यन्त बुरा है । असत्यका पहला भेद 'सदपलाप' है जो वस्तु अपने द्रव्यसे, क्षेत्रसे, कालसे और भाव से विद्यमान है उसे कह देना कि नहीं है, जैसे श्रात्मा है पर कोई कद दे कि आत्मा नहीं है वह 'सदपलाप' कहलाता है। दूसरा भेद 'असदुद्भावन' है जिसका अर्थ होता है असद्-अविद्यमान पदार्थका सद्भाव बतलाना । जैसे घट न होने पर भी कह देना कि यहाँ घट है। तीसरा भेद वह है जहाँ वस्तुको दूसरे रूप कह दिया जाता है जैसे गायको घोड़ा कह देना । गहित पापसंयुक्त और अप्रय जो वचन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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