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किरण ४]
प्रकार लोकापवादके भवसे जिनधर्मको नहीं छोड़ देना । उस निराश्रित अपमानित स्त्रीको इतना विवेक बना रहा । इसका कारण क्या था ? उसका सम्यग्दर्शन । आज कलकी स्त्री होती तो पचास गालियाँ सुनाती और अपने समानताके अधिकार बतलाती। इतना ही नहीं सीता जब नारद जीके श्रायोजन द्वारा लव-कुश के साथ अयोध्या वापिस श्राती आती हैं एक वीरतापूर्ण युद्ध के बाद पिता पुत्रका मिलाप होता है, सीताजी लज्जासे भरी हुई राजदरबार में पहुँचती हैं तू उसे देखकर रामचन्द्र कह उठते हैं-'दुष्टा ! बिना शपथ दिवे-विना परीक्षा दिये यहाँ कहाँ ? तुझे लज्जा नहीं आई।' सीताने विवेक और धैर्यके साथ उत्तर दिया कि मैं समझो भी आपका हृदय कोमल है, पर क्या कहूँ ? आप मेरी जिस प्रकार चाहें शपथ लें। रामचन्द्रजी ने उत्तेजनात्मक शब्दोंमें कह दिया कि श्रग्निमें कूदकर अपनी सच्चाईकी परीक्षा दो बड़े भारी जलते हुए अग्निकुण्ड में सीता कूदनेको तैयार हुई। रामचन्द्रजी लक्ष्मणसे कहते हैं कि सीता जल न जाय । लक्ष्मणने कुछ रोषपूर्ण शब्दों में उत्तर दिया, वह आज्ञा देते समय नहीं सोचा। वह सती है, निर्दोष है, श्राज आप उसके श्रखण्डशीलकी महिमा देखिये उसी समय दो देव केवलीकी वन्दनासे लोट रहे थे, उनका ध्यान सीताके उपसर्ग दूर करने की ओर गया, सीता अग्निकुण्ड में कूद पड़ी और कूदते ही साथ जो अतिशय हुआ सो सब जानते हो । सीताके चित्तमें रामचन्द्रजीके कठोर वचन सुनकर संसारसे वैराग्य हो चुका था। पर "निःशल्यो प्रती" प्रतीको निःशल्य होना चाहिए, यदि बिना परीक्षा दिए मैं मत लेती हूँ तो यह राज्य निरन्तर बनी रहेगी, इसलिये उसने दीक्षा लेनेसे पहिले परीक्षा देना आवश्यक समझा था । परीक्षा में वह पास हो गई, रामचन्द्रजी उससे कहते है देवी ! घर चलो अब तक हमारा स्नेह हृदयमें था पर लोकलाजके कारण श्रांखों में श्रागया है ।' सीताने नीरस स्वरमें कहा"कद्दि सीता सुन रामचन्द्र, संसार महादुःख वृक्ष कंद" तुम जानत पर कछु करत नाहिं
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रामचन्द्रजी ! यह अंसार दुःखरूपी वृक्ष की जड़ है अब मैं इसमें न रहूँगी। सच्चा सुख इसके स्यागमें ही है। रामचन्द्रजीने बहुत कुछ कहा, यदि मैं अपराधी हूँ वो
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लक्ष्मणकी ओर देखो, यदि वह भी अपराधी हो तो अपने बच्चों लव-कुशकी ओर देखो और एक बार पुनः घरमें प्रवेश करो, पर सीता अपनी दृढ़तासे च्युत नहीं हुई, उसने उसी वक्त केश उखाड़कर रामचन्द्रजीके सामने फेंक दिये और उसमें जाकर आर्या हो गई। यह सब काम सम्यदर्शका है। यदि उसे अपने कर्म पर भाग्य पर विश्वास न होता तो वह क्या यह सब कार्य कर सकती थी।
उत्तम मार्दव
अब रामचन्द्रजीका विवेक देखिये, जो रामचन्द्र सीताके पीछे पागल हो रहे थे वृद्धोंसे पूछते थे कि क्या तुमने मेरी सीता देखी है ? वही जब तपश्चर्या में लीन थे सीवाके जीव प्रतीन्द्रने कितने उपसर्ग किये पर वह अपने ध्यानसे विचलित नहीं हुए । शुक्लध्यान धारणकर केवलि - अवस्थाको प्राप्त हुए।
सम्यग्दर्शनसे आत्मामें प्रशम संवेग अनुकम्पा और श्रास्तिक्य गुण प्रगट होते हैं जो सम्यग्दर्शन के श्रविनाभावी हैं। यदि आपमें यह गुण प्रकट हुए हैं तो समझ लो कि हम सम्यग्दष्टि है। कोई क्या बतलायेगा कि तुम सम्ब दृष्टि हो या मिध्यादृष्टि अनन्तानुबन्धीकी काय दुः माहसे ज्यादा नहीं चलती, यदि आपकी किसीसे लड़ाई होने पर छः माह तक बदला लेनेकी भावना रहती है तो समझ लो श्रभी हम मिथ्यावादी हैं । कषायके श्रसंख्यात लोकप्रमाण स्थान है उनमें मनका स्वरूप यों ही शिथिल हो जाना प्रशमगुण है मिध्यादृष्टि अवस्थाके समय इस । जीवकी विषय कषायमें जैसी स्वछन्द प्रवृत्ति होती है वैसी सम्यग्दर्शन होने पर नहीं होती है। यह दूसरी बात है कि चारित्रमोहके उदयसे यह उसे छोड़ नहीं सकता हो, पर प्रवृत्ति में शैविश्य अवश्यू आजाता है। शमका एक अर्थ यह भी है जो पूर्वकी अपेक्षा अधिक प्राय हैयः कृतापराधी जीवों पर भी रोष उत्पन्न नहीं होना प्रथम कहलाता है। बहुरूपिणी विद्या सिद्ध करते समय रामचन्द्रजीने रावण पर जो रोष नहीं किया था वह इसका उत्तम उदाहरण है । प्रशमगुण तब तक नहीं हो सकता जब तक अनन्तानुबन्धी सम्बन्धी क्रोध विद्यमान है, उसके छूटते ही प्रशमगुण प्रगट हो जाता है। क्रोध ही क्यों अनन्तानुबन्धी सम्बन्धी मान माया लोभ सभी कषाय प्रशम गुणके घातक हैं ।
( सागर भाद्रपद ६ )
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