Book Title: Anekant 1940 01 Author(s): Jugalkishor Mukhtar Publisher: Veer Seva Mandir Trust View full book textPage 5
________________ धवलादि श्रुत-परिचय [ सम्पादकीय ] धवल - जयधवल के रचयिता ( २ ) ग विशेषाङ्क में यह बतलाया जा चुका है कि धवल-जयधवल मूल ग्रन्थ न होकर संस्कृत - प्राकृत भाषा - मिश्रित टीकाग्रन्थ हैं, परन्तु अपने अपने मूल ग्रन्थोंको साथमें लिये हुए है। साथ ही, यह भी बतलाया जा चुका है कि वे मूलग्रन्थ कौन हैं, किस भाषा के हैं, कितने कितने परिमाणको लिए हुए हैं और किस किस श्राचार्य के द्वारा निर्मित हुए हैं अथवा उनके अव तारकी क्या कुछ कथा इन टीका-ग्रन्थों में वर्णित है, इत्यादि । आज यह बताया जाता है कि धवल के रचयिता वीरसेनाचार्य और जयधवलके रचयिता वीरसेन तथा जिनसेनाचार्य कौन थे, किस मुनि-परम्परा में उत्पन्न हुए थे, टीकोपयुक्त सिद्धान्त विषयक ज्ञान उन्हें कहांसे प्राप्त हुआ था और उनका दूसरा भी क्या कुछ परिचय इन टीकाग्रन्थों परसे उपलब्ध होता है । श्रीवीरसेनाचार्य धवल के अन्तमें एक प्रशस्ति लगी हुई है, जो नवगाथात्मिका है और जिसके रचयिता स्वयं श्री वीरसेनाचार्य जान पड़ते हैं, क्योंकि उसमें अन्तमंगल के तौर पर मंगलाचरण करते हुए 'मए' (मया) और 'महु' ' (मम) जैसे पदों का प्रयोग किया गया है और ग्रन्थसमाप्ति के ठीक समयका बहुत सूक्ष्मरूपसे - उस वक्तकी ग्रहस्थिति तकको स्पष्ट बतलाते हुए - उल्लेख किया है । इस प्रशस्तिकी १ली, ४थी और पूर्वीीं, ऐसी तीन गाथाश्रोंसे वीरसेनाचार्यका कुछ परिचय मिलता है । पहली गाथासे मालूम होता है कि एलाचार्य सिद्धान्त विषय में वीरसेन के शिक्षा गुरु थे— इस सिद्धान्तशास्त्र (षट्खण्डा गम) का विशेष बोध उन्हें उन्होंके प्रसादसे प्राप्त हुआ था, और इसलिये इस विषयका उल्लेख करते हुए वीरसेनाचार्यने उन एलाचार्य के अपने ऊपर प्रसन्न होनेकी भावना की है— प्रकारान्तरसे यह सूचित किया है कि 'जिन श्रीएलाचार्यसे सिद्धान्त-विषयक ज्ञान को प्राप्त करके मैं उनका ऋणी हुआ था, उनके उस ऋणको आज मैं ब्याज (सूद) सहित चुका रहा हूँ, यह देखकर वे मुझ पर प्रसन्न होंगे । चौथी और पांचवी दो गाथाओं में यह बतलाया है कि जिन वीरसेन मुनि भट्टारकने यह टीका ( धवला ) लिखी है वे आचार्य श्रानन्दीके शिष्य तथा चन्द्रसेनके प्रशिष्य थे और 'पंचस्तूप' नामके मुनिवंश में उत्पन्न हुए थे— उस *धवला में श्रन्यत्र - 'कर्म' नामके अनुयोगद्वार में"वैयावृत्य के भेदोंका वर्णन करते हुए, मुनिकुलके १ पंच स्तूप, २ गुहावासी, ३ शालमूल, ४ अशोकवाट, ५ खंडकेसर, ऐसे पंच भेद किये हैं । यथा " तत्थ कुलं पंचविहं पंचथूहकुलं, गुहावासीकुलं सालमूलकुलं असोगवादकुलं खंडकेस रकुल चेदि ।” 'पंच स्तूप' नामक मुनिवंश के मुनियों का मूलनिवासस्थान पंचस्तूपों के पास था, ऐसा इन्द्रनन्दि श्रुतावतार के 'पंच स्तूयनिवासादुपागता येऽनगारिणः" जैसेPage Navigation
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