Book Title: Ahimsa ki Prasangikta Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur View full book textPage 9
________________ ...अहिंसन् सर्वभूतान्यन्यत्र तीर्थेभ्यः स खल्वेवं ब्रह्मलोकमभिसम्पद्यते न च पुनरावर्तते न च पुनरावर्तते। अर्थात् धर्म तीर्थ की आज्ञा से अन्यत्र प्राणियों की हिंसा नहीं करता हुआ वह निश्चय ही ब्रह्मलोक (मोक्ष) को प्राप्त होता है, उसका पुनरागमन नहीं होता है, पुनरागमन नहीं होता है। __ आत्मोपासना और मोक्षपार्ग के रूप में अहिंसा की यह प्रतिष्ठा औपनिषदिक ऋषियों की अहिंसक चेतना का सर्वोत्तम प्रमाण है। वेदों और उपनिषदों के पश्चात् स्मृतियों का क्रम आता है। स्मृतियों में मनुस्मृति प्राचीन मानी जाती है। उसमें भी ऐसे अनेक संदर्भ है, जो अहिंसा के सिद्धान्त की पुष्टि करते हैं। यहाँ हम उसके कुछ सन्दर्भ प्रस्तुत कर रहे हैं - अहिंसयैव भूतानां कार्य श्रेयोऽनुशासनम्। - मनुस्मृति २/१५६ अर्थात् प्राणियों के प्रति अहिंसक आचरण ही श्रेयस्कर अनुशासन है। ___अहिंसया च भूतानाममृतत्वाय कल्पते। - मनुस्मृति ६/६० अर्थात् प्राणियों के प्रति अहिंसा के भाव से व्यक्ति अमृतपद (मोक्ष) को प्राप्त करता है। ___ अहिंसा सत्यमस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः। एतं सामासिक धर्म चतुर्वण्येऽब्रवीन्मनुः। - मनुस्मृति १०/६३ अर्थात् अहिंसा, सत्य, अस्तेय, पवित्रता और इन्द्रिय निग्रह- ये मनु के द्वारा चारों ही वणों के लिये सामान्य धर्म कहे गये हैं। हिन्दू परम्परा की दृष्टि से स्मृतियों के पश्चात् रामायण, महाभारत और पुराणों का काल माना जाता है। महाभारत, गीता और पुराणों में ऐसे सैकड़ो सन्दर्भ हैं, जो भारतीय मनीषियों की अहिंसक चेतना के महत्त्वपूर्ण साक्ष्य माने जा सकते हैं - अहिंसा सकलोधर्मो हिंसाधर्मस्तथाहित। - महाभारत शां.पर्व अध्याय २७२/२० अर्थात् अहिंसा को सम्पूर्ण धर्म और हिंसा को अधर्म कहा गया है। न भूतानामहिंसाया ज्यायान् धर्मोस्तथाहित। - महाभारत शां. पर्व २६२/३० अर्थात् प्राणीमात्र के प्रति अहिंसा की भावना से श्रेष्ठ कोई धर्म नहीं है। अहिंसा परमोधर्मस्तथाहिंसा परो दमः। अहिंसा परमं दानमहिंसा परमं तपः।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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