Book Title: Ahimsa ki Prasangikta
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 53
________________ अध्याय-७. सकारात्मक अहिंसा और सामाजिक जीवन सकारात्मक अहिंसा इसलिए भी आवश्यक है क्योंकि वह हमारे सामाजिक जीवन का आधार है। 'मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है।' सामाजिक जीवन से अलग होकर उसके अस्तित्त्व की कल्पना ही दुष्कर है। सकारात्मक अहिंसक चेतना अर्थात् संवेदनशीलता के अभाव में हम समाज की कोई कल्पना भी नहीं कर सकते हैं। समाज जब भी खड़ा होता है तब आत्मीयता, प्रेम, पारस्परिक सहयोग और दूसरे के लिए अपने हित-त्याग के आधार पर खड़ा होता है। आचार्य उमास्वाति ने कहा है कि एक दूसरे का हित करना यह प्राणीय-जगत का नियम है (परस्परोपग्रहो जीवानाम-तत्त्वार्थसूत्र ५.२१)। जीवन सहयोग और सहकार की स्थिति में ही अस्तित्त्व में आता है और विकसित होता है। सहयोग और अपने हितों का दूसरे के हेतु उत्सर्ग समाज-जीवन का आधार है। दूसरे शब्दों में समाज सदैव ही सकारात्मक अहिंसा के आधार पर खड़ा होता है। निषेधात्मक अहिंसा चाहे वैयक्तिक साधना का आधार हो, किन्तु वह सामाजिक जीवन का आधार नहीं हो सकती। आज जिस अहिंसक समाजरचना की बात कही जाती है, वह समाज जब भी खड़ा होगा, सकारात्मक अहिंसा के आधार पर ही खड़ा होगा। जब तक समाज के सदस्यों में एक-दूसरे की पीड़ा को समझने और उसे दूर करने के प्रयत्न नहीं होंगे, तब तक समाज अस्तित्त्व में ही नहीं आ पायेगा। सामाजिक जीवन के लिए आवश्यक है कि हमें दूसरों की पीड़ा का स्व-संवेदन हो और उनके प्रति आत्मीयता का भाव हो। सामान्य रूप से इस आत्मीयता को रागात्मकता समझने की भूल की जाती है, किन्तु आत्मीयता एवं रागात्मकता में अन्तर है। रागात्मकता सकाम होती है, उसके मूल में स्वार्थ का तत्त्व विद्यमान होता है, वह प्रत्युपकार की अपेक्षा रखती है, जबकि आत्मीयता निष्काम होती है, उसमें मात्र परार्थ की वृत्ति होती है। यही कारण था कि प्रश्नव्याकरणसूत्र में अहिंसा के जो विविध नाम दिये गये, उसमें रति को भी स्थान दिया गया। यहाँ रति का अर्थ वासनात्मक प्रेम या द्वेषमूलक राग-भाव नहीं हैं, यह निष्काम प्रेम है। वस्तुतः जब अपनत्व का भाव प्रत्युपकार की अपेक्षा न रखता हो और वह सार्वभौम हो, तो आत्मीयता कहलाता है। वस्तुतः जब तक अन्य जीवों के साथ समानता की अनुभूति, उनके जीवन जीने के अधिकार के प्रति सम्मान-वृत्ति और उनकी पीड़ाओं का स्व-संवेदन नहीं होता, तब तक अहिंसक चेतना का उद्भव भी नहीं होता। अहिंसक चेतना का मूल आधार आत्मीयता की अनुभूति है। वह सार्वभौमिक प्रेम है। वह ऐसा ४६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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