Book Title: Ahimsa ki Prasangikta
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 55
________________ जैनधर्म जिस पूर्ण अहिंसा के आदर्श को प्रस्तुत करता है, उसमें भी जब संघ की अथवा संघ के एक सदस्य की सुरक्षा का प्रश्न आया, तो जैन आचार्यों ने सापेक्षिक या सापवादिक अहिंसा को ही स्वीकार किया। जैन साहित्य में आचार्य कालक और गणाधिपति चेटक के उदाहरण इसके स्पष्ट प्रमाण हैं। निशीथचूर्णि ( गाथा २८६ ) में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि जब संघ की सुरक्षा अथवा किसी सती स्त्री के सतीत्व के रक्षण का प्रश्न हो, तो गृहस्थ ही नहीं मुनि भी हिंसा का सहारा ले सकता है । ऐसी स्थिति में बाह्य रूप से हिंसा की जो घटना घटित होती है, उसे चाहे द्रव्य हिंसा की दृष्टि से हिंसा कहा जाय, किन्तु यदि उसमें कर्त्ता की वृत्ति में निजी स्वार्थ और अपराधी के प्रति द्वेष भाव नहीं है, तो ऐसी हिंसा वस्तुतः अहिंसा ही है। जब तक मानव समाज का एक भी सदस्य पाशविक वृत्तियों में आस्था रखता हो, तब तक यह सोचना व्यर्थ है कि सामुदायिक जीवन में पूर्ण अहिंसा का आदर्श व्यवहार्य बन सकेगा। जो लोग सकारात्मक अहिंसा अर्थात् रक्षण, सेवा, सहकार आदि जीवन मूल्यों को केवल इस आधार पर अमान्य करते हैं कि उनसे निरपेक्ष या पूर्ण अहिंसा का पालन सम्भव नहीं है, उनकी यह अवधारणा उचित नहीं कही जा सकती है । निशीथचूर्णि में अहिंसा के जिन अपवादों की चर्चा है, उन्हें चाहे कुछ लोग साध्वाचार के रूप में सीधे मान्य न करना चाहते हों, किन्तु क्या यह नपुंसकता नहीं होगी कि जब किसी मुनिसंघ के सामने किसी तरूणी साध्वी का अपहरण हो रहा हो या उस पर बलात्कार हो रहा हो और वे पूर्ण अहिंसा के परिपालन की दुहाई देकर द्रष्टा बने रहें ? क्या उनका कोई सामाजिक दायित्व नहीं है ? हिंसा-अहिंसा का प्रश्न निरा वैयक्तिक नहीं है। जब तक सम्पूर्ण मानव-समाज एक साथ अहिंसा की साधना के लिए तत्पर नहीं होता है, किसी एक समाज या राष्ट्र द्वारा पूर्ण अहिंसा का उद्घोष कोई अर्थ नहीं रखता। अधिक क्या कहें, यदि सम्पूर्ण समाज षड्जीव - निकाय की नवकोटिपूर्ण अहिंसा के आदर्श के परिपालन की बात करने लगे, तो क्या जैनमुनि संघ का भी कोई अस्तित्त्व रहेगा? अतः पूर्ण अहिंसा के आदर्श की दुहाई देकर अहिंसा के सकारात्मक पक्ष की अवहेलना कथमपि उचित नहीं मानी जा सकती । संरक्षणात्मक व सुरक्षात्मक प्रयासों में जो हिंसा की बाह्य घटनायें होती हैं, वे सामाजिक जीवन के लिए अपरिहार्य हैं। अहिंसा सापवादिक और सकारात्मक अहिंसा हिंसा और अहिंसा का प्रश्न मुख्य रूप से तो आन्तरिक है । बाह्यरूप में हिंसा के होने पर भी राग-द्वेष की वृत्तियों से ऊपर उठा अप्रमत्त मनुष्य अहिंसक है, जबकि बाह्यरूप में हिंसा न होने पर भी प्रमत्त मनुष्य हिंसक ही है। एक ओर ४८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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