Book Title: Ahimsa ki Prasangikta
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 62
________________ खाद्य-सामग्री के प्रदूषण से बचने के लिये जैनाचार्यों ने किन-किन आचार नियमों का प्रतिपादन किया है, इसकी चर्चा करेंगे। जल-प्रदूषण और जल-संरक्षण - जल को प्रदूषण से मुक्त रखने के लिये एवं उसके सीमित उपयोग के लिये जैन ग्रन्थों में अनेक निर्देश उपलब्ध है। यद्यपि, प्राचीन काल में ऐसे बड़े उद्योग नहीं थे जिनसे बड़ी मात्रा में जल प्रदूषण हो, फिर भी जल में अल्प मात्रा में भी प्रदूषण न हो इसका ध्यान जैन परम्परा में रखा गया है। जैन परम्परा में प्राचीन काल से यह अवधारणा रही है कि नदी, तालाब, कुएँ आदि में प्रवेश करके स्नान, दातौन तथा मलमूत्र आदि का विसर्जन नहीं करना चाहिये, क्योंकि जल में शारीरिक-मलों के उत्सर्ग के परिणामस्वरूप जो विजातीय तत्व जल में मिलते हैं, उनसे बहुतायत से जलीय जीवों की हिंसा होती है और जल प्रदूषित होता है। जैन परम्परा में आज भी यह लोकोक्ति है कि पानी का उपयोग घी से भी अधिक सावधानी से करना चाहिये। मुझे स्वयं वे दिन याद हैं, जब घी के गिरने पर उतनी प्रताड़ना नहीं मिलती थी, जितनी एक गिलास पानी के गिर जाने पर। आज से २०-२५ वर्ष पूर्व तक जैन मुनि यह नियम या प्रतिज्ञा दिलाते थे कि नदी, कुएँ आदि में प्रवेश करके स्नान नहीं करना, स्नान में एक घड़े से अधिक जल का व्यय नहीं करना आदि। उनके ये उपदेश हमारी आज की उपभोक्ता संस्कृति को हास्यास्पद लगते हों, किन्तु भविष्य में जो पीने योग्य पानी का संकट आने वाला है, उसे देखते हुए ये नियम कितने उपयोगी एवं महत्वपूर्ण हैं, इसे कोई भी व्यक्ति सरलता से समझ सकता है। जैन परम्परा में मुनियों के लिये तो सचित्तजल (जीवन युक्त जल) के प्रयोग का ही निषेध है। जैन मुनि केवल उबला हुआ गर्म पानी या अन्य किन्हीं साधनों से जीवाणु रहित हुआ जल ही ग्रहण कर सकते हैं। सामान्य उपयोग के लिये वह ऐसा जल भी ले लेते हैं, जिसका उपयोग गृहस्थ कर चुका हो और उसे बेकार मानकर फेंक रहा हो। गृहस्थ उपासक के लिये भी जल के उपयोग से पूर्व उसका छानना और सीमित मात्रा में ही उसका उपयोग करना आवश्यक माना गया है। बिना छना पानी पीना जैनों के लिए पापाचरण माना गया है। जल को छानना अपने को प्रदूषित जल ग्रहण से बचाना है और इस प्रकार वह स्वास्थ्य के संरक्षण का भी अनुपम साधन है। जल के अपव्यय का मुख्य कारण आज हमारी उपभोक्ता संस्कृति है। जल का मूल्य हमें इसलिये पता नहीं लगता है कि प्रथम तो वह प्रकृति का निःशुल्क उपहार है। दूसरे, आज नल की टोंटी खोलकर हम उसे बिना परिश्रम पा लेते हैं। यदि कुओं से स्वयं जल निकालकर और उसे दूरी से घर पर लाकर इसका उपयोग करना हो, तो जल का मूल्य क्या है, इसका हमें पता लगे। चाहे इस युग ५५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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