Book Title: Ahimsa ki Prasangikta
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

View full book text
Previous | Next

Page 59
________________ अध्याय-८ पर्यावरण प्रदूषण की समस्या और अहिंसा. तीव्रता से बढ़ती हुई जनसंख्या और उपभोक्तावादी संस्कृति के कारण प्रदूषित होते पर्यावरण की रक्षा का प्रश्न आज मानव समाज की एक ज्वलन्त समस्या है, क्योंकि प्रदूषित होते हुए पर्यावरण के कारण न केवल मानवजाति अपितु पृथ्वी पर स्वयं जीवन के अस्तित्त्व को भी खतरा उत्पन्न हो गया है और वे सभी तथ्य, जो जीवन के अस्तित्त्व को संकट में डालते हैं, किसी-न-किसी रूप में हिंसा का रूप हैं। अतः पर्यावरण प्रदूषण का प्रश्न हिंसा-अहिंसा की अवधारणा से निकट रूप से जुड़ा हुआ है। उपभोक्तावादी संस्कृति के कारण जीवन जीने के लिये आवश्यक स्त्रोतों का इतनी तीव्रता से और इतनी अधिक मात्रा में दोहन हो रहा है कि प्राकृतिक तेल एवं गैस की बात तो दूर रही, अगली शताब्दी में पेयजल और सिंचाई हेतु पानी मिलना भी दुष्कर होगा। यही नहीं, शहरों में शुद्ध प्राणवायू के थैले लगाकर चलना होगा। अतः मानवजाति के भावी अस्तित्त्व के लिये यह आवश्यक हो गया है कि पर्यावरण को प्रदूषण से मुक्त करने के प्रयत्न अविलम्ब प्रारम्भ हो। यदि ऐसा नहीं है तो हमारी भावी पीढ़ी का जीवन खतरे में होगा और अपनी भावी पीढ़ी के संकट की उपेक्षा करना, यह एक प्रकार की हिंसा ही है। महात्मा गांधी ने कहा था कि भावी पीढ़ी की चिन्ता नहीं करना भी हिंसा है। यह शुभ-लक्षण है कि पर्यावरण को प्रदूषण से मुक्त करने की चेतना आज समाज के सभी वर्गों में जागी है और इसी क्रम में यह विचार भी उभर कर सामने आया है कि विभिन्न धार्मिक परम्पराओं में पर्यावरण को प्रदूषण से मुक्त रखने के ऐसे कौन से निर्देश है, जिनको उजागर करके पर्यावरण को प्रदूषण से मुक्त रखने के सन्दर्भ में मानव समाज के विभिन्न वर्गों की चेतना को जागृत किया जा सके। इस संदर्भ में यहाँ मैं जैनधर्म की दृष्टि से ही आप लोगों के समक्ष अपने विचार रखूगा। यह एक निर्विवाद तथ्य है कि जैनधर्म में भोगवृत्ति के प्रति संयम, अहिंसा और असंग्रह (अपरिग्रह) पर सर्वाधिक बल दिया गया है। उसके इन्हीं मूलभूत सिद्धान्तों के आधार पर जैनधर्म में ऐसे अनेक आचार नियमों का निर्देश हुआ है, जिनका परिपालन आज पर्यावरण को प्रदूषण से मुक्त रखने के लिये आवश्यक है। जैनधर्म के प्रवर्तक भगवान महावीर ने आज से ढाई हजार वर्ष पूर्व यह उद्घोषणा की थी कि न केवल पृथ्वी, बल्कि पानी, वायु और अग्नि में भी ५२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72