Book Title: Ahimsa ki Prasangikta
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

View full book text
Previous | Next

Page 16
________________ जैन और बौद्ध परम्पराओं में अहिंसा सम्बन्धी जो खण्डन-मण्डन हुआ, उसके पीछे सैद्धान्तिक मतभेद न होकर उसकी व्यवहारिकता का प्रश्न ही प्रमुख रहा है। पं. सुखलालजी लिखते हैं- दोनों की अहिंसा सम्बन्धी व्याख्या में कोई तात्त्विक मतभेद नहीं है। जैन परम्परा ने नवकोटिक अहिंसा की सूक्ष्म व्यवस्था को अमल में लाने के लिए जो बाह्य प्रवृत्ति को विशेष नियन्त्रित किया, वह बौद्ध परम्परा ने नहीं किया। जीवन सम्बन्धी बाह्य प्रवृत्तियों के अति नियन्त्रण और मध्यवर्गीय शैथिल्य के प्रबल भेद में से ही वौद्र और जैन परम्पराएँ आपस में खण्डन-मण्डन में प्रवृत्त हुई। जब हम दोनों परम्पराओं के खण्डन-मण्डन को तटस्थ भाव से देखते हैं तब निःसंकोच कहना पड़ता है कि बहुधा दोनों ने एक-दूसरे को गलत रूप से ही समझा है। इसका एक उदाहरण मज्झिमनिकाय के उपालिसुत्त का और दूसरा सूत्रकृतांग का है। यद्यपि जैन परम्परा ने नवकोटिपूर्ण अहिंसा के पालन पर बल दिया, लेकिन नवकोटिक अहिंसा के पालन में जब साधु-जीवन के व्यवहारों का सम्पादन एवं संयमी जीवन का रक्षण भी असम्भव प्रतीत हुआ तो यह स्वीकार किया गया कि शास्त्रविहित प्रवृत्तियों में हिंसा-दोष का अभाव होता है। इसी प्रकार मन्दिर-निर्माण, प्रतिमापूजन, तीर्थयात्रा आदि के प्रसंग पर होनेवाली हिंसा विहित मान ली गयी। परिणाम यह हुआ कि 'वैदिक हिंसा हिंसा नहीं है', इस सिद्धान्त के प्रति की गयी उनकी आलोचना स्वयं निर्बल हो गयी। वैदिक पक्ष की ओर से कहा जाने लगा कि यदि तुम कहते हो कि शास्त्रविहित हिंसा हिंसा नहीं है, तो फिर हमारी आलोचना कैसे कर सकते हो? इस प्रकार आलोचनाओं और प्रत्यालोचनाओं का एक विशाल साहित्य निर्मित हो गया, जिसका समुचित मूल्यांकन यहाँ सम्भव नहीं है। फिर भी इतना तो कहा जा सकता है कि इस समग्र वाद-विवाद में जैन, बौद्ध और वैदिक परम्पराओं में मौलिक रूप से सैद्धान्तिक मतभेद अल्प ही हैं। प्रमुख प्रश्न व्यवहार का है। व्यवहारिक दृष्टि से जैन और वैदिक परम्पराओं में निम्न अन्तर खोजे जा सकते हैं(१) जैन परम्परा पूर्ण अहिंसा के पालन सम्बन्धी विचार को केवल उन्हीं स्थितियों में शिथिल करती है जिनमें मात्र संयममूलक मुनि-जीवन का अनुरक्षण हो सके, जबकि वैदिक परम्परा में अहिंसा के पालन में उन सभी स्थितियों में शिथिलता की गयी है जिनमें सभी आश्रम और सभी प्रकार के लोगों के जीवन जीने और अपने कर्तव्यों के पालन का अनुरक्षण हो सके। ४. दर्शन और चिन्तन, खण्ड २, पृ. ४१५. ५. अभिधान राजेन्द्रकोश, खण्ड ७, पृ. १२२६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72