Book Title: Ahimsa ki Prasangikta
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 42
________________ अपने काल के सम्प्रदाय - विशेष के कुछ जैन मुनियों के आचार, व्यवहार और उपदेश के आधार पर ऐसा निष्कर्ष निकाल लिया था । अहिंसा के निषेधात्मक पक्ष की प्रमुखता के तात्त्विक आधार यह सत्य है कि श्रमण परम्परा ने और विशेष रूप से जैनधर्म ने अहिंसा के अर्थ-विस्तार को एक व्यापकता प्रदान की है, किन्तु इसके साथ यह भी सत्य है कि इस अहिंसा के अर्थ-विस्तार के साथ अनेक दार्शनिक समस्यायें भी उत्पन्न हुई । अहिंसा के क्षेत्र का विस्तार करते हुए जब एक ओर यह मान लिया गया कि जीवन के किसी भी रूप को दुःख या पीड़ा देना अथवा उसके अहित और अकल्याण का चिन्तन करना हिंसा है, साथ ही दूसरी ओर यह भी स्वीकार कर लिया गया कि न केवल मनुष्य - जगत् वरन् पशु-जगत् और वनस्पति-जगत् में भी जीवन है, तो यह समस्या उत्पन्न हुई कि जब जीवन के एक रूप के अस्तित्त्व के लिए उसके दूसरे रूपों का विनाश या हिंसा अपरिहार्य हो, तो ऐसी स्थिति में चुनाव हिंसा और अहिंसा के बीच न करके दो हिंसाओं के बीच ही करना पड़ेगा। जिन चिन्तकों ने जीवन के सभी रूपों को समान मूल्य और महत्त्व का समझा, उन्हें अहिंसा के सकारात्मक पक्ष की उपेक्षा करनी पड़ी, क्योंकि सकारात्मक अहिंसा अर्थात् सेवा, दान, परोपकार आदि की सभी क्रियाएँ प्रवृत्यात्मक हैं और प्रवृत्ति, जैन पारिभाषिक शब्दावली में योग, चाहे किसी भी रूप में क्यों न हो, उसमें कहीं-न-कहीं हिंसा / आस्रव का तत्त्व तो होता ही है । यदि हम प्रवृत्ति के पूर्ण निषेध को ही साधना का लक्ष्य मानें, तो ऐसी स्थिति में स्वाभाविक रूप से अहिंसा की अवधारणा निषेधमूलक होगी। ज्ञातव्य है कि उन सभी धर्मों के लिए जिन्होंने पृथ्वी, जल, वायु, वनस्पति आदि में जीवन ही नहीं माना अथवा यह मान लिया कि जीवन के ये विविध रूप समान मूल्य या महत्त्व के नहीं हैं अथवा यह कि परमात्मा ने जीवन के इन दूसरे रूपों को मनुष्य के उपयोग के लिए ही बनाया है, उन्हें अहिंसा के सकारात्मक पक्ष को स्वीकार करने में कोई बाधा नहीं आई । समस्या केवल उनके लिए थी, जो जीवन के इन विविध रूपों को समान मूल्य या महत्त्व का मान रहे थे 1 यह सत्य है कि जैन - परम्परा में निवृत्ति और जीवन के विविध रूपों की समानता पर अधिक बल दिया गया और परिणामस्वरूप जैनधर्म में अहिंसा का निषेधात्मक पक्ष अधिक प्रमुख बना । विशेष रूप से उन जैन श्रमणों के लिए, जो निदृत्यात्मक साधना को ही जीवन का एक मात्र उच्चादर्श मान रहे थे, उनके जीवन-व्यवहार एवं आचार - नियमों को इस रूप में ढाला गया कि वे मुख्य रूप से अहिंसा के निषेधात्मक पक्ष के समर्थक बनकर रह गये। जैनधर्म के प्राचीनतम आगम ग्रन्थों में ऐसे कुछ सन्दर्भ अवश्य हैं, जो अहिंसा के नकारात्मक पहलू को ३५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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