Book Title: Ahimsa ki Prasangikta
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 23
________________ पृथ्वीकायिक जीवों के प्रति भी अहिंसक होने की बात कहता है, अतः अहिंसा को भय के आधार पर नहीं, अपितु अभय, जिजीविषा और सुखाकांक्षा के मनोवैज्ञानिक सत्यों के आधार पर अधिष्ठित किया जा सकता है। पुनः जैनधर्म ने इन मनोवैज्ञानिक सत्यों के साथ ही अहिंसा को आत्मतुल्यता बोध का बौद्धिक आधार भी दिया गया है। वहाँ कहा गया है कि जो अपनी पीड़ा को जान पाता है, वही तुल्यता बोध के आधार पर दूसरों की पीड़ा को भी समझ सकता है। प्राणीय पीड़ा की तुल्यता के बोध के आधार पर होने वाला यह आत्मसंवेदन ही अहिंसा की नींव है। वस्तुतः अहिंसा का मूलाधार जीवन के प्रति सम्मान, समत्वभावना एवं अद्वैत भावना है। समत्वभाव से सहानुभूति तथा अद्वैतभाव से आत्मीयता उत्पन्न होती है और इन्हीं से अहिंसा का विकास होता है। अहिंसा जीवन के प्रति भय से नहीं, जीवन के प्रति सम्मान से विकसित होती है। दशवैकालिकसूत्र में कहा गया है कि सभी प्राणी जीवित रहना चाहते हैं, कोई मरना नहीं चाहता, अतः निर्ग्रन्थ प्राणवध (हिंसा) का निषेध करते हैं। वस्तुतः प्राणियों के जीवित रहने का नैतिक अधिकार ही अहिंसा के कर्तव्य को जन्म देता है। जीवन के अधिकार का सम्मान ही अहिंसा है। उत्तराध्ययनसूत्र में समत्व के आधार पर अहिंसा के सिद्धान्त की स्थापना करते हुए कहा गया है कि भय और वैर से मुक्त साधक, जीवन के प्रति प्रेम रखने वाले सभी प्राणियों को सर्वत्र अपनी आत्मा के समान जान कर उनकी कभी भी हिंसा न करे। यह मेकेन्जी की इस धारणा का, कि अहिंसा भय पर अधिष्ठित है, सचोट उत्तर है। आचारांगसूत्र में तो आत्मीयता की भावना के आधार पर ही अहिंसा-सिद्धान्त की प्रतिष्ठापना की गयी है। उसमें लिखा है- जो लोक (अन्य जीव समूह) का अपलाप करता है, वह स्वयं अपनी आत्मा का भी अपलाप करता है। आगे पूर्णआत्मीयता की भावना को परिपुष्ट करते हुए महावीर कहते हैं- जिसे तू मारना चाहता है, वह तू ही है। जिसे तु शासित करना चाहता है, वह तू ही है। जिसे तू परिताप देना चाहता है, वह तू ही है। भक्तपरिज्ञा में भी लिखा है -किसी भी अन्य प्राणी की हत्या वस्तुतः अपनी ही हत्या है और अन्य जीवों की दया अपनी ही दया है।" इस प्रकार जैनधर्म में अहिंसा का आधार आत्मवत् दृष्टि ही है। २६. सव्वे पाणा पिआउया सुहसाया दुःखपडिकूला, १।२।३. २७. दशवैकालिक, ६।११. २८. उत्तराध्ययन, ६७. २६. आचारांग, १३३. ३०. आचारांग, १।५।५. ३१. भक्तपरिज्ञा-६३. १६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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