Book Title: Ahimsa ki Prasangikta
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 29
________________ (४) वृत्ति और आचरण का अन्तर कोई सामान्य नियम नहीं है । सामान्य रूप से व्यक्ति की जैसी वृत्तियाँ होती है, वैसा ही उसका आचरण होता है । अतः यह मानना कि आचरण का बाह्य पक्ष वृत्तियों से अलग होकर कार्य कर सकता है, एक भ्रान्त धारणा है । हिंसा के प्रकार जैन विचारकों ने द्रव्य और भाव, इन दो रूपों के आधार पर हिंसा के चार विभाग किये है- १. मात्र शारीरिक हिंसा, २. मात्र वैचारिक हिंसा, ३. शारीरिक एवं वैचारिक हिंसा, और ४. शाब्दिक हिंसा । मात्र शारीरिक हिंसा या द्रव्य हिंसा वह है, जिसमें हिंसक क्रिया तो सम्पन्न हुई हो, लेकिन हिंसक विचार का अभाव है। उदाहरणस्वरूप, सावधानीपूर्वक चलते हुए भी दृष्टिदोष या जन्तु की सूक्ष्मता के कारण उसके नहीं दिखाई देने पर हिंसा हो जाना । मात्र वैचारिक हिंसा या भाव हिंसा वह है जिसमें हिंसा की क्रिया तो अनुपस्थित हो, लेकिन हिंसा का संकल्प उपस्थित हो। इसमें कर्ता हिंसा के संकल्प से युक्त होता है, लेकिन बाह्य परिस्थितिवश उसे क्रियान्वित करने में सफल नहीं हो पाता है । जैसे- कैदी का न्यायाधीश की हत्या करने का विचार ( जैन परम्परा में इस सम्बन्ध में तंदुलमच्छ एवं कालसौकरिक कसाई के उदाहरण प्रस्तुत किये जाते है ) । वैचारिक एवं शारीरिक हिंसा, जिसमें हिंसा का विचार और हिंसा की क्रिया, दोनों ही उपस्थित हो । जैसे- संकल्पपूर्वक की गई हत्या । शाब्दिक हिंसा, जिसमें न तो हिंसा का विचार हो न हिंसा की क्रिया, मात्र हिंसक शब्दों का उच्चारण हो । जैसे- सुधार की भावना से माता-पिता का बालकों पर या गुरू का शिष्य पर कृत्रिम रूप से कुपित होना । नैतिकता की या बन्धन की तीव्रता की दृष्टि से हिंसा के इन चार रूपों में क्रमशः शाब्दिक हिंसा की अपेक्षा संकल्प रहित शारीरिक हिंसा, संकल्प रहित शारीरिक हिंसा की अपेक्षा वैचारिक हिंसा और मात्र वैचारिक हिंसा की अपेक्षा संकल्पयुक्त शारीरिक हिंसा अधिक निकृष्ट मानी गयी है 1 हिंसा की विभिन्न स्थितियाँ ४० वस्तुतः हिंसक कर्म की तीन अवस्थाएँ हो सकती हैं- १. हिंसा की गयी हो, २. हिंसा करनी पड़ी हो और ३. हिंसा हो गयी हो। पहली स्थिति में यदि हिंसा चेतन रूप से की गई है, तो वह संकल्पयुक्त है; यदि अचेतन रूप से की गई है, तो वह प्रमादयुक्त है । हिंसक क्रिया, चाहे संकल्प से उत्पन्न हुई हो या प्रमाद के कारण हुई हो, कर्ता दोषी माना जाता है। दूसरी स्थिति में हिंसा चेतन रूप से किन्तु विवशतावश करनी पड़ती है, यह बाध्यता शारीरिक हो सकती है ४०. पुरूषार्थसुद्धयुपाय, ४४ Jain Education International २२ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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