Book Title: Ahimsa ki Prasangikta
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 33
________________ कहा गया है कि प्राणातिपात (हिंसा) होने पर भी अप्रमत्त साधक अहिंसक है और प्राणातिपात न होने पर भी प्रमत्त व्यक्ति हिंसक है। इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन आचार्यों की दृष्टि में हिंसा अहिंसा का प्रश्न मुख्य रूप से आन्तरिक रहा है। इस दृष्टिकोण के पीछे प्रमुख विचार यह है कि एक और व्यवहारिक रूप से पूर्ण अहिंसा का पालन और दूसरी ओर आध्यात्मिक साधना के लिए जीवन को बनाये रखने का प्रयास, यह दो ऐसी स्थितियाँ है जिनका साथ-साथ चलाना सम्भव नहीं होता है। अतः जैन-विचारकों को अन्त में यही स्वीकार करना पड़ा कि हिंसा-अहिंसा का सम्बन्ध बाहरी घटनाओं की अपेक्षा आन्तरिक वृत्तियों से है।" इस दृष्टिकोण का समर्थन हमें गीता और धम्मपद में भी मिलता है। गीता कहती है- जो अहंकार की भावना से मुक्त है, जिसकी बुद्धि मलिन नहीं है, वह इन सब मनुष्यों को मारता हुआ भी नहीं मारता है और वह (अपने इस कर्म के कारण) बन्धन में नहीं पड़ता। - धम्मपद में भी कहा है कि (नैष्कर्म्य-स्थिति को प्राप्त) ब्राह्मण माता-पिता को, दो क्षत्रिय राजाओं को एवं प्रजा-सहित राष्ट्र को मारकर भी निष्पाप होकर जाता है (क्योंकि वह पाप-पुण्य से ऊपर उठ जाता है)। यहाँ गीता और धम्मपद में प्रयुक्त 'मारकर' शब्द पर आपत्ति हो सकती है। जैन परम्परा में सामान्यतया इस प्रकार का प्रयोग नहीं है, फिर भी जैनागमों में ऐसे अपवाद स्थानों का विवेचन उपलब्ध है, जब कि हिंसा अनिवार्य हो जाती है। ऐसे अवसरों पर अगर की जाने वाली हिंसा से डर कर कोई उसका आचरण नहीं करता (वह हिंसा नहीं करता), तो उलटे दोष का भागी बनता है। यदि गीता में वर्णित युद्ध के अवसर को एक अपवादात्मक स्थिति के रूप में देखें, तो सम्भवतः जैन-विचारणा गीता से अधिक दूर नहीं रह जाती है। दोनों ही ऐसी स्थिति में व्यक्ति के चित्त-साम्य (कृतयोगित्व) और परिपक्व शास्त्रज्ञान (गीतार्थ) पर बल देती है। ५०. निशीथचूर्णि, ६२ ५१. दर्शन और चिन्तन, खण्ड २, पृ. ४१४ ५२. गीता, १७-१८ ५३. धम्मपद, २६४ ५४. दर्शन और चिन्तन, खण्ड २, पृ. ४१६ २६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org


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