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हिंसा और अहिंसा का प्रत्यय बाह्य घटनाओं पर उतना निर्भर नहीं है, जितना वह साधक की मनोदशा पर आधारित है। हिंसा और अहिंसा के विवेक का आधार प्रमुख रूप से आन्तरिक है। हिंसा में संकल्प की प्रमुखता है। भगवती सत्र में एक संवाद के द्वारा इसे स्पष्ट किया गया है। गणधर गौतम महावीर से प्रश्न करते हैं - हे भगवन्! किसी श्रमणोपासक ने किसी त्रस प्राणी का वध न
करने की प्रतिज्ञा ली हो, लेकिन पृथ्वीकाय की हिंसा की प्रतिज्ञा नहीं ग्रहण की हो; । यदि भूमि खोदते हुए उससे किसी प्राणी का वध हो जाय तो क्या उसकी प्रतिज्ञा
भंग हुई? महावीर कहते हैं कि यह मानना उचित नहीं-उसकी प्रतिज्ञा भंग हुई।३ इस प्रकार संकल्प की उपस्थिति अथवा साधक की मानसिक स्थिति ही हिंसा-अहिंसा के विचार में प्रमुख तत्त्व है। परवर्ती जैन साहित्य में यही धारणा पुष्ट होती रही है। आचार्य भद्रबाहु का कथन है कि सावधानीपूर्वक चलने वाले साधु के पैर के नीचे कभी-कभी कीट-पतंग आदि क्षद्र प्राणी आ जाते हैं और दब कर मर भी जाते हैं, लेकिन उक्त हिंसा के निमित्त से उसे सूक्ष्म कर्म बंध भी नहीं बताया गया हैं, क्योंकि यह अन्तर में सर्वतोभावेन उस हिंसा व्यापार से निर्लिप्त होने के कारण निष्पाप है। जो विवेक सम्पन्न अप्रमत्त साधक आन्तरिक विशद्धि से युक्त है और आगमविधि के अनुसार आचरण करता है, उसके द्वारा हो जाने वाली हिंसा भी कर्म-निर्जरा का कारण है। लेकिन जो व्यक्ति प्रमत्त है, उसकी किसी भी चेष्टा से जो भी प्राणी मर जाते हैं, वह निश्चित रूप से उन सबका हिंसक होता है। इतना ही नहीं, वरन् जो प्राणी नहीं मारे गये हैं, प्रमत्त मनुष्य उनका भी हिंसक है, क्योंकि वह अन्तर में सर्वतोभावेन पापात्मा है। इस प्रकार आचार्य का निष्कर्ष यही है कि केवल दृश्यमान पापरूप हिंसा से ही कोई हिंसक नहीं हो जाता।
आचार्य कुन्दकुन्द प्रवचनसार में कहते है कि बाहर में प्राणी मरे या जिए, असंयताचारी प्रमत्त को हिंसा का दोष निश्चित रूप से लगता है; परन्तु जो अहिंसा की साधना के लिए प्रयत्नशील है, समितिवान या संयताचारी है, उसको बाहर से होने वाली हिंसा के कारण कर्म-बन्धन नहीं होता। आचार्य अमृतचन्द्रसूरि लिखते हैं कि रागादि कषायों से ऊपर उठकर नियमपूर्वक आचरण करते हुए भी यदि प्राणघात हो जाये तो वह हिंसा नहीं है। निशीथचूर्णि में भी
४३. भगवतीसूत्र, ७।१६-७ ४४. ओघनियुक्ति, ७४८-४६ ४५. ओघनियुक्ति, ७५६ ४६. ओपनियुक्ति, ७५२-५३ ४७. ओपनियुक्ति, ७५८ ४८. प्रवचनसार, ३१७ ४६. पुरुषार्थसिद्धियुक्ति, ४५
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