Book Title: Ahimsa ki Prasangikta
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 27
________________ परिभाषा उसके बाह्य पक्ष पर बल देती है। द्रव्य-हिंसा का तात्पर्य प्राण-शक्तियों का कुण्ठन, हनन तथा विलगाव करना है। भाव-हिंसा हिंसा का विचार है। यह मानसिक अवस्था है, जो प्रमादजन्य है। आचार्य अमृतचन्द्र हिंसा के भावात्मक पक्ष पर बल देते हुए हिंसा-अहिंसा की परिभाषा करते हैं। उनका कथन है कि रागादि कषायों का अभाव अहिंसा है और उनका उत्त्पन्न होना ही हिंसा है। यही जैन-आगमों की विचार दृष्टि का सार है। हिंसा की पूर्ण परिभाषा 'तत्त्वार्थसूत्र' में मिलती है। 'तत्त्वार्थसूत्र' के अनुसार, "राग-द्वेष या कषाय आदि प्रमादों से युक्त होकर किया जाने वाला प्राण-वध हिंसा है।"२८ अहिंसा के बाह्य पक्ष की अवहेलना उचित नहीं हिंसा-अहिंसा के विचार में जिस भावात्मक आन्तरिक पक्ष पर जैन-आचार्य इतना अधिक बल देते रहे हैं, उसका महत्त्व निर्विवाद रूप से सभी को स्वीकार्य है। यही नहीं, इस सन्दर्भ में जैनदर्शन, गीता और बौद्ध-दर्शन में विचार साम्य है, जिस पर हम विचार कर चुके हैं। यह निश्चित है कि हिंसा-अहिंसा की विवक्षा में भावात्मक या आन्तरिक पहलू ही मूल केन्द्र हैं, लेकिन दूसरे बाह्य पक्ष की अवहेलना भी कथमपि सम्भव नहीं है। यद्यपि वैयक्तिक साधना की दृष्टि से आध्यात्मिक एवं आन्तरिक पक्ष का ही सर्वाधिक मूल्य है; लेकिन जहाँ सामाजिक एवं व्यवहारिक जीवन का प्रश्न है, हिंसा-अहिंसा की विवक्षा में बाह्य पहलू को भी झुठलाया नहीं जा सकता, क्योंकि व्यवहारिक जीवन और सामाजिक व्यवस्था की दृष्टि से जिस पर विचार किया जा सकता है, वह तो आचरण का बाह्य पक्ष ही है। गीता और बौद्ध आचार-दर्शन की अपेक्षा भी जैन-दर्शन ने इस बाह्य पक्ष पर गहनतापूर्वक समुचित विचार किया है। जैन-परम्परा यह मानती है कि किन्हीं अपवाद की अवस्थाओं को छोड़कर सामान्यतया जो विचार में है, वही व्यवहार में प्रकट होता है। अन्तरंग और बाह्य अथवा विचार और आचार के सम्बन्ध में द्वैत दृष्टि उसे स्वीकार्य नहीं है। उसकी दृष्टि में अन्तरंग में अहिंसक वृत्ति के होते हुए बाह्य हिंसक आचरण करना, यह एक प्रकार की भ्रान्ति है, छलना है, आत्मप्रवंचना है। सूत्रकृतांगसूत्र में कहा गया है कि यदि हृदय पापमुक्त हो. तो (हिंसादि) क्रिया करने पर भी निर्वाण अवश्य मिलता है, यह एक मिथ्याधारणा है। यदि गीता का यह मन्तव्य हो कि अन्तर में अहिंसक वृत्ति के होते हुए भी हिंसात्मक क्रिया की जा सकती है, तो जैन-दर्शन का उससे स्पष्ट ३८. अभिधान राजेन्द्र, खण्ड ७, पृ. १२२८. २० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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