Book Title: Ahimsa ki Prasangikta
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 28
________________ विरोध है। जैनधर्म कहता है कि अन्तर में अहिंसक वृत्ति के होते हुए हिंसा की नहीं जा सकती, यद्यपि हिंसा हो सकती है। हिंसा करना सदैव ही संकल्पात्मक होगा और आन्तरिक विशुद्धि के होते हुए हिंसात्मक कर्म का संकल्प सम्भव ही नहीं । ३६ वस्तुतः हिंसा-अहिंसा की विवक्षा में जैन- दृष्टि का सार यह है कि हिंसा चाहे वह बाह्य हो या आन्तरिक, वह आचार का नियम नहीं हो सकती । दूसरे, हिंसा - अहिंसा की विवक्षा में बाह्य पक्ष की अवहेलना भी मात्र कतिपय अपवादात्मक अवस्थाओं में ही क्षम्य है। हिंसा का हेतु मानसिक दुष्प्रवृत्तियाँ या कषायें हैं, यह मानना तो ठीक है, लेकिन यह मानना कि मानसिक वृत्ति या कषायों के अभाव में होने वाली द्रव्यहिंसा हिंसा नहीं है, उचित नहीं । यह ठीक है कि संकल्पजन्य हिंसा अधिक निकृष्ट और निकाश्चित कर्म - बंध करती है, लेकिन संकल्प के अभाव में होने वाली हिंसा, हिंसा नहीं है या उससे कर्म - आम्रव नहीं होता है, यह जैनकर्म - सिद्धान्त के अनुकूल नहीं है । व्यवहारिक जीवन में हमें इसको हिंसा मानना होगा। इस प्रकार के दृष्टिकोण को निम्न कारणों से उचित नहीं माना जा सकता (१) जैन-दर्शन में आस्रव का कारण तीन योग है- (अ) मनयोग ( ब ) वचनयोग और (स) काययोग। इनमें से किसी भी योग के कारण कर्मों का आगमन (आस्रव) होता अवश्य है । द्रव्यहिंसा में काया की प्रवृत्ति है, अतः इसके कारण आस्रव होता है। जहाँ आस्रव है, वहाँ हिंसा है । प्रश्नव्याकरणसूत्र में आस्रव के पाँच द्वार (9 . हिंसा, २. असत्य, ३. स्तेय, ४. अब्रह्मचर्य, ५. परिग्रह ) माने गये हैं, जिसमें प्रथम नवद्वार हिंसा है । ऐसा कृत्य जिसमें प्राण वियोजन होता है, हिंसा है और दूषित है। यह ठीक है कि कषायों के अभाव में उससे निकाश्चित कर्म-बंध नहीं होता है, लेकिन क्रिया दोष तो लगता है 1 -- 1 (२) जैन - शास्त्रों में वर्णित पच्चीस क्रियाओं में 'ईर्यापथिक' क्रिया भी है जैनतीर्थंकर राग-द्वेष आदि कषायों से मुक्त होते हैं, लेकिन काययोग के कारण उन्हें ईर्यापथिक क्रिया लगती है और ईर्यापथिक बंध भी होता है । यदि द्रव्य - हिंसा मानसिक कषायों के अभाव में हिंसा नहीं है, तो कायिक व्यापार के कारण उन्हें ईर्यापथिक क्रिया क्यों लगती है? इसका तात्पर्य यह है कि द्रव्यहिंसा भी हिंसा है 1 (३) द्रव्य हिंसा यदि मानसिक प्रवृत्तियों के अभाव में हिंसा ही नहीं है तो फिर यह दो भेद - भाव हिंसा और द्रव्यहिंसा नहीं रह सकते । ३८. सूत्रकृतांग, २।६।३५. Jain Education International २१ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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