Book Title: Ahimsa ki Prasangikta
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 15
________________ भक्ति-मार्ग का विकास हुआ। इसमें अहिंसा का अर्थविस्तार सम्पूर्ण प्राणीजगत अर्थात् स जीवों की हिंसा के निषेध तक हुआ। वैदिक परम्परा में संन्यासी को कन्द-मूल एवं फल का उपभोग करने की स्वतन्त्रता है, इस प्रकार वहाँ वानस्पतिक हिंसा का विचार उपस्थित नहीं है। यह बात तो सत्य ही है कि अहिंसक चेतना को सर्वाधिक विकसित करने का श्रेय श्रमण परम्पराओं को ही है । भारत में ई.पू. छठी शताब्दी का जो भी इतिवृत्त हमें प्राप्त होता है, उससे ऐसा लगता है कि उस युग में पूर्ण अहिंसा के आदर्श को साकार बनाने में श्रमण सम्प्रदायों में होड़ लगी हुई थी। कम से कम हिंसा ही श्रामण्य - जीवन की श्रेष्ठता का प्रतिमान था । सूत्रकृतांग में आर्द्रककुमार की विभिन्न मतों के श्रमणों से जो चर्चा है, उसमें मूल प्रश्न यही है कि कौन सबसे अधिक अहिंसक है (देखिये सूत्रकृतांग, २।६ ) ? त्रस प्राणियों (पशु-पक्षी, कीट-पतंग आदि) की हिंसा तो हिंसा थी ही, किन्तु वानस्पतिक और सूक्ष्म प्राणियों की हिंसा को भी हिंसा माना जाने लगा था। मात्र इतना ही नहीं; मनसा, वाचा, कर्मणा, और कृत, कारित और अनुमोदित के प्रकारभेदों से नवकोटिक अहिंसा का विचार प्रविष्ट हुआ, अर्थात् मन, वचन और शरीर से हिंसा करना नहीं, करवाना नहीं और करनेवाले का अनुमोदन भी नहीं करना । बौद्ध और आजीवक परम्परा के श्रमणों ने भी इस नवकोटिक अहिंसा के आदर्श को स्वीकार कर उसके अर्थ को गहनता और व्यापकता प्रदान की, फिर भी बौद्ध परम्परा में षट्जीवनिकाय का विचार उपस्थित नहीं था। बौद्ध भिक्षु नदी-नालों के जल को छानकर उपयोग करते थे। दूसरे उनके यहाँ नवकोटि अहिंसा की यह अवधारणा भी स्वयं की अपेक्षा से थी, दूसरे द्वारा हमारे निमित्त से की जाने वाली हिंसा का भी विचार नहीं किया गया । निर्ग्रन्थ परम्परा का कहना था कि केवल इतना ही पर्याप्त नहीं है कि हम मनसा, वाचा, कर्मणा हिंसा न करें, न करावें और न उसे अनुमोदन दें, अपितु यह भी आवश्यक है कि दूसरों को हमारे निमित्त हिंसा करने का अवसर भी नहीं देवें और उनके द्वारा की गई हिंसा में भागीदार न बनें। यही कारण था कि जहाँ बुद्ध और बौद्ध भिक्षु निमन्त्रित भोजन को स्वीकार करते थे, वहाँ निर्ग्रन्थ परम्परा में औद्देशिक आहार भी अग्राह्य माना गया था, क्योंकि उसमें नैमित्तिक हिंसा के दोष की सम्भावना थी । यद्यपि पिटकग्रन्थों में बौद्ध भिक्षु के लिये ऐसा भोजन निषिद्ध माना गया है, जिसमें उसके लिये त्रस प्राणीहिंसा की गयी हो और वह इस बात को जानता हो या उसने ऐसा सुना हो। फिर भी यह अतिशयोक्ति नहीं है कि अहिंसा को जितना व्यापक अर्थ जैन परम्परा में दिया गया है, उतना अन्यत्र अनुपलब्ध ही है। 1 Jain Education International ८ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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